मुर्दापन के दौर में मानवीय संवेदनाओं को कुरेदती संजय सिंघई की ज़िंदा कविता 

                       


 


"तर्पण "


हाथों के जखम, तन की तपन,
फेंक किनारे एक तरफ,
धस जायेंगे अंगारों में, अमृत घट रचने को।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने, फिर वापिस हम आएंगे।


पीठ पर उभरे गाण्डीव,
बेलचे, फावडे, गेंती, सब्बल दिव्यास्त्र संग,
पत्थरों को पिघलाने,
नित नए शीश महल रचाने ।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने, फिर वापिस हम आएंगे।


फौलाद शरीर, फौलादी आत्मा।
मिट्टी में तन, मिट्टी में मिलन।
फर्जी, नकली, कागजी रोटी दूर,
हक की टेढी पा जावेंगे।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने,फिर वापिस हम आएंगे।


छोड़ गए जिस किनार पे,
मिट्टी के सुराही, जलते चूल्हे,
तपती आंच के वे ईंटों के भट्टे।
याद हमें फिर आएंगे।
नाजुक, खैराती रोटी, हम न हजम कर पाएंगे।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने, फिर वापिस हम आएंगे।


थकना हमारे लहू का रंग नहीँ,
हम वंशज हैं कर्म वीरों के।
श्रम से अर्जित, भूख मिटाने,
बोटी नहीँ रोटी को खाने।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने, फिर वापिस हम आएंगे।


दहक अंगार सरिया से, दुनिया ये दमकाने को,
श्रम, अखंड, श्वेद कणों से धुआंधार रचाने को।
नहीँ चाहिए, ये बंदरबांट रोटियां,
अंधेरा खा जाएंगे, लावा सा, जी जाएंगे।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने फिर,वापिस हम आ जाएंगे।


सीने पे जुलम, दिल में सितम।
बोझ गृहस्थी का जी जाएंगे।
सफर है जिन्दगी रोटियों का, सम्मान से जी पाएंगे।
नहीँ चाहिए, मजहबी गोल रोटियां, जो निगल हलक से उतर न पायें।
श्रम उपार्जित संसार बसाने।
हुजूर,
नव राष्ट्र बनाने,फिर वापिस हम आएंगे।


संजय सिंघई               


(संजय सिंघई, जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि हैं...)


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