सुधीर सक्सेना की ताज़ा कविताएं


सुधीर सक्सेना की ताज़ा कविताएं



 
















1.
कोई छींकेगा सहसा
और हम डर जाएंगे,
यकबयक कोई गले लगेगा तपाक से
और हम डर जाएंगे


 

यत्र तत्र सर्वत्र
डर हमारे साथ होगा
डर हमारे साथ चहलकदमी करेगा
हम डरे हुए होंगे
और डर निडर


क्या भय और मनुष्य की
जुगलबंदी के सूत्रपात के लिए
याद किया जाएगा
इतिहास में
सन बीस सौ बीस ईस्वी
नामुराद!


2.
हम वायुमार्ग से जाएंगे
और हम पाएंगे
कि वह विमान में
हमारी ही सीट पर बैठा है


हम समुद्र के रास्ते रवाना होंगे
और पाएंगे
कि वह हमारे केबिन में
हमारे साथ मौजूद है जलपोत में


रेलगाड़ी में, कार में, टैक्सी में
यहां तक कि ऑटो-रिक्शे,
तांगे, इक्के, साइकिल, बाइक
यहां तक कि हाथ-रिक्शे, विक्टोरिया और
बैलगाड़ी तथा मेट्रो तक में
हम उसे पाएंगे अपने साथ उपस्थित


हम पाएंगे
कि पहले भी था उसका वजूद
सृष्टि के आदि से
परंतु वह इतना ढीठ तो कभी न था
क़त्ल के नायाब नये अचूक हथियार से लैस


हम पाएंगे
कि उसके होने से हम हैं भयभीत
वह है तो हम डरे हुए बेहिसाब
हम पाएंगे
कि वह यात्राओं में हमारा सहचर है;
अनचाहा, अनिष्टकारी और अमंगल
भला स्वप्न में भी कब चाहा था हमने
यात्राओं में ऐसा अमित्र-सहयात्री।


3.
यह डर है
डरों की तालिका में
अपूर्व, अनहोना और अनिष्टकारी


अनहोनी नहीं
कि हम एक विषाणु से डरते
मगर हुआ कुछ ऐसा
कि हम डरते हैं छींक से, खखार से,
डरते हैं हम भरबांह भेंटने से,
डरते हैं हाथ मिलाने
और चूमने से बेतरह
इस वर्जनाहीन उत्तर आधुनिक समय में
जब लिव-इन भी गैरकानूनी नहीं रहा
हम अचानक डरने लगे हैं बेइंतेहा


पता नहीं,
डर की कहानी कहां से शुरू हुई
तमाम कथानकों और क्षेपकों से गुजरते
विस्तार पाया इसने सन बीस सौ बीस में
कि छोटा पड़ गया धरती का विस्तार


एक नामालूम बिन्दु से भी लघुतम जीव में
किस ब्रह्मर्षि, भविष्यवेत्ता या वैज्ञानिक को
ज्ञात था
कि किसी लघुतम अविक्ष्ण में
कुंडली मारे था भय इतना विराट।


4.
हम उसे देख नहीं सकते,
हम उसे छू नहीं सकते,
हम उसे माप नहीं सकते
अब तक के सारे शरों से
अधिक तीक्ष्ण है वह
मौजूद हर कहीं


मौजूद वह जनपथ से राजपथ तक,
मकानों में, कारखानों में,
चौराहों, कुल्हियों, लेनों और बुल्वारों में
दूरियां नापता वह यानों में


निस्संदेह
सर्वव्यापी है वह
अनादिकाल से ज्ञात सर्वव्यापी से
भिन्न वह इतना
कि नितांत अनिष्टकारी है यह
और मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना से परे
कहा जा सकता है निर्विवाद
कि आभासी नहीं,
वास्तविक है यह
नितांत वास्तविक।


5.
बहुत बुरा वक़्त है यह
मगर वह भी कम बुरा नहीं होगा बिला शक
कि हम हमदर्द के कांधे सिर रख
रो नहीं सकेंगे,
और न ही भींच सकेंगे
प्रिया को आलिंगन में प्रगाढ़,
हम मिल नहीं सकेंगे तपाक से गले
और फासले होंगे हमारी दिनचर्या में शुमार


किसे भान था
कि सृष्टि के इतिहास और हमारे जीवन में
ऐसा भी वक़्त आएगा,
जब होठों से बेहिचक मिलने को
तरस जाएंगे होठ।



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