लौट चलें कविता के गांव में
बहुत हुआ किस्सा
रमता जोगी बहता पानी का।
सोचता हूं एक बार फिर से
लौट जाऊं कविताओं के अपने गांव में,
कोमल ठंडी छांव में ।
जहां युगों युगों से
पीपल और नीम में
भाई - बहन का नाता है।
जहां इनके पवित्र रिश्ते में
कभी ग्रहण नहीं लग पाता है।
जहां तुलसी से किया जाता है
मुंह बोली बिटिया सा व्यवहार ।
जहां से उसे बिदा करके
भेजा जाता है पिया के द्वार।
जहां अल्हड़ नदियां
होकर बहती है दिवानी,
जहां प्रकृति के गर्भ से
जन्म लेती है रोज नयी कहानी।
जहां झरनों के संगीत में
बावला हो जाता है मन।
जहां अंगड़ाई लेकर नाचने
को मचलता है यौवन।
जहां सुबह करती है
अपने आराध्य सूर्य का अभिनंदन।
जहां परिंदों की चहचहाहट मौसम में बिखेरती है चंदन।
जहां पलकों की पालकी में पलता है,
लोकलाज के लिबास में सिमटा प्यार
जहां गुड्डे-गुड़ियों की झूठ-मूठ सी शादियों में,
बस जाते हैं हंसते खेलते संसार,
जहां कभी जरा सी बात पर
कलाई से रूठ जाते हैं कंगन
जहां सदियों चलते हैं
बिन डोर बांधे प्यार के बंधन
तभी तो अकुलाता है
कविताओं के गांव में
लौट जाने को मन।
- अरुण श्रीवास्तव
( वरिष्ठ पत्रकार और लेखक)
एक टिप्पणी भेजें