कालजयी कहानी
हाथी की फांसी
गणेश शंकर विद्यार्थी
कुछ दिन से नवाब साहब के मुसाहिबों को कुछ हाथ मारने का नया अवसर नहीं मिला था। नवाब साहब थे पुराने ढंग के रईस। राज्य तो बाप-दादे खो चुके थे, अच्छा वसीका मिलता था। उनकी ‘इशरत मंजिल’ कोठी अब भी किसी साधारण राजमहल से कम न थी। नदी-किनारे वह विशाल अट्टालिका चांदनी रात में ऐसी शोभा देती थी, मानो ताजमहल का एक टुकड़ा उस स्थल पर लाकर खड़ा कर दिया गया हो। नवाब साहब को आराइश का बहुत ख्याल रहता था। उस पर बहुत रुपया खर्च करते थे और या फिर खर्च करते चारों ओर मुसाहिबों की बातों पर। उम्र ढल चुकी थी, जवानी के शौक न थे, किंतु इन शौकों पर जो खर्च होता, उसे कहीं अधिक यारों की बेसिर-पैर की बातों पर आए दिन हो जाया करता था। यारों ने कुछ सलाह की और दूसरे दिन सवेरे कोर्निश और आदाब के और मिज़ाजपुर्सी के बाद लगे वे नवाब साहब की तारीफ में ज़मीन और आसमान के कुलाबे एक करने। यासीन मियां ने एक बात की, तो सैयद नज़मुद्दीन ने उस पर हाशिया चढ़ाया। हाफिज़जी ने उस पर और भी रंग तेज़ किया। अंत में मुन्ने मिर्जा ने नवाब साहब की दीनपरस्ती पर सिर हिलाते हुए कहा, ‘खुदावंद, कल रात को मैंने जो सपना देखा, उससे तो यही जी चाहता है कि हुजूर के कदमों पर निसार हो जाऊं और जिंदगी-भर इन पाक-कदमों को छोड़कर कहीं जाने का नाम न लूं।’
यारों ने बड़े शौक से पूछा, ‘मिर्जा साहब, क्या ख्वाब था? ज़रा हम भी तो सुनें।’ मुन्ने मिर्जा, ‘क्या कहूं, उसका जितना ख्याल करता हूं, उतना दिल पाक जज्बात से पुर और मसर्रत से उछलने लगता है। क्या ख्वाब था, कितना मुबारक! कितना पाक!’ मियां यासीन-‘भाई कुछ कहोगे भी?’ मुन्ने मिर्जा-‘उस ख्वाब के महज़ ख्याल से बंद में आ जाता हूं। जी चाहता है कि क्या पाऊं और हुजूर को सिर काट करके लुटा दूं।’ नवाब साहब-‘मिर्जाजी, आखिर ख्वाब भी तो बतलाइये।’ मुन्ने मिर्जा-‘हां, हां, हुजूर, ज़रूर। रात को दस बजे जो सोया था तो तीन का घंटा बज रहा था, उस वक्त आंख खुली। मैंने सोचा, अभी तो सवेरा होने में बहुत देर है, फिर चारपाई पर पड़ा रहा। कुछ यादे-इलाही में मसरूफ था कि आंख झपक गयी। ख्वाब क्या देखता हूं कि मेरे कंधे पर, पर जम आए हैं और मैं उड़ रहा हूं। उड़ता-उड़ता मक्का शरीफ में पहुंच गया। आसपास के पुरनूर नजा़रे से जब दिल सेर हो गया, तब मैंने भीतर कदम रखा। देखता क्या हूं कि एक बड़ा लंबा-चौड़ा मैदान है, उसमें बहुत-से बड़े-बड़े बुजुर्गवार एक सफेद फर्श पर बैठे हुए हैं, आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। इतने में क्या देखता हूं कि वे सब उठकर खड़े हो गये और कतार बांधने लगे। मैं उन लोगों के पीछे की कतार के पीछे खड़ा हो गया। वे सब नमाज़ पढ़ने लगे। एक साहब ने मुझे इशारा किया कि तू भी नमाज में शामिल हो। पहली रकात के बाद मैंने जो सिर उठाकर आगे देखा तो मेरे ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा। देखता क्या हूं कि सब जमाजियों के आगे पेश-इमाम की जगह पर हुजूर नवाब साहब हैं और वे ही नमाज पढ़ा रहे हैं। सब नमाज़ पढ़ रहे थे और इबादत में मसरूफ थे, मगर मैं था कि इस ख्याल में कि हुजूरवाला यहां कहां, मैं तो आपको घर छोड़ आया था। पता नहीं कितनी देर तक मैं उसी ख्याल में गलता पेचां रहा। मेरा ध्यान उस वक्त टूटा जब मेरे कान में यह आवाज पड़ी, ‘ऐ नेकबख्त, देखता नहीं, ये सब दुनिया की पाक रूहें हैं और जो बुजुर्ग इनका पेश-इमाम है वह इस वक्त दुनिया में सबसे ज्यादा दीनदार और अल्लाहताला का प्यारा है। मैंने जब नज़र उठायी तो देखता क्या हूं कि सामने की रूहें गायब हैं और मेरे पास खड़े हुए एक बड़ी भारी सफेद दाढ़ीवाले बुजुर्ग मुझसे ये अलफाज फरमा रहे हैं। मैं बहुत आजबी से आदाब बजा लाने के लिए झुका। झुकते ही कुछ शोर हुआ। देखता हूं कि अपनी चारपाई पर पड़ा हूं और बाहर मुर्ग कुकड़-कूं, कुकड़-कूं बोल रहा है। बिस्तरे से उठ पड़ा। खुदा को सिजदा करके मैंने दिल में कहा, मेरे मालिक का यह रुतबा! इसका तो मुझ नाकिस-उल-अक्ल को कभी ख्याल भी न हुआ था। उस वक्त से खुशी से दिल बाग-बाग है। मियां यासीन, तुम्हीं कहो, यह क्या कम खुशनसीबी है कि हम लोग हुजूर ऐसे नेक-नीयत और पाक-इनसान की खिदमतगुज़ारी में हैं, जिनको दुनिया के बड़े-बड़े बुजुर्ग तक अपना सदीर मानते हैं।’
सैयद साहब ने कहा-‘दुनिया में हुजूर से बढ़कर दीनदार कौन है? मैं तो एक अदना आदमी हूं, हुजूर के दमों पर हमेशा निसार रहता हूं, मगर इस वक्त अगर खुदा ने ज़र दिया होता तो इस खुशी में लुटा देता और कम से कम आज के दिन तो शहर-भर के किसी मोहताज को भूखा न रहने देता।’ नवाब साहब-‘मिर्जाजी, क्या सचमुच रात को मैं मक्के शरीफ में पहुंच गया था! आंखों को अक्सर धोखा हो जाता है।’ मुन्ने मिर्जा-‘हुजूर, मैंने तो ख्वाब की बात कही है, मगर ख्वाब बड़े मारके के हुआ करते हैं। खासकर सुबह का देखा हुआ।’
यासीन मियां-‘सच है हुजूर, यह ख्वाब ऐसा ही है। मैं तो हुजूर को पहले ही से पहुंचा हुआ समझता रहा हूं।’ नवाब साहब- ‘तुम क्यों करोगे! गरीबों के लिए जो कुछ कहो, वह हो जाए। अच्छा, खजांची को बुलाओ। एक हज़ार रुपये ले लो, और आज इसी खुशी में मोहताजों को कोठी के सामने, वह जो चाहें, उन्हें दोनों वक्त खिला दो।’ दोपहर से लेकर रात तक नवाब साहब की कोठी के सामने बहुत-से-गरीब मोहताज जमा थे। उनको खाना दिया गया, किसी को पेट-भर और किसी को अधपेट। किसी को चना-चबेना और किसी को पूड़ी-कचौड़ी। वे सब निपटा दिए गये। शेष रकम मुसाहिबों और नौकर-चाकरों ने चुपचाप घोंट ली। नवाब साहब ने समझा, मोहताजों को खूब मिला और उनका पुण्य और भी बढ़ा और मुसाहिबों ने सोचा कि अच्छा मूर्ख बनाया और दूसरे अवसर की घात में रहने लगे।
नवाब साहब की महफिल जमी थी। मुसाहिब लोग करीने से अदब के साथ बैठे हुए थे। पिछले सफर का जिक्र था। नवाब साहब और उनके हाली-मुहाली बंबई गये थे। पहले बंबई की खूबसूरत इमारतों, उसकी शानदार सड़कों, चौपाटी, जहाज़ों आदि का जिक्र होता रहा और फिर उसके बाद जीआईपीआर की बढि़या गाड़ियों की तारीफ होती रही। बीच में नवाब साहब ने फरमाया-‘अल्लाह! रेल भी कितने आराम की चीज़ है। अजी यह किसने बनाई और कब से बनी है?’ मुन्ने मिर्जा-‘हुजूर, ठेकेदारों ने बनाई है। बहुत दिन हुए तब बनी थी।’ हाफिज-‘ठेकेदार बनावेंगे अपना सिर! हुजूर, फिरंगियों ने रेल चलाई। उनके दिमाग से रेल निकली।’ मियां यासीन-‘हुजूर, इन्हें नहीं मालूम। रोम के सुल्तान ने सबसे पहले रेल चलाई। फिरंगी उसके सामने क्या है? फिरंगियों की इस पोशाक को आपने गौर से मुलाहिजा़ फरमाया है।’ नवाब-‘क्यों? क्या बात है?’ मियां यासीन-‘इनकी पतलून अपने साथ एक तवारीखी वाकया रखती है। किसी ज़माने में रोम के सुल्तान ने फिरंगियों को पकड़-पकड़कर गुलाम बनाया था और उनको यह पतलून इसलिए पहनाई कि हमेशा दस्त–बस्ता खड़े रहें।' नवाब साहब- ‘क्यों जी, अब इन फिरंगियों ने रेल को बहुत फरोज दे डाला है।’ हरचरन भाट पीछे बैठे हुए थे। उन्होंने चुप रहना उचित न समझा। इस बार मियां यासीन या और कोई नवाब साहब की बात का कोई उत्तर देने के लिए जबां हिलाएं, उससे पहले ही रायजी ने कहा-‘हुजूर फिरंगियों ने तरक्की की तो ज़रूर, मगर काली माई की मर्जी के बिना रेल का पहिया घूम नहीं सकता। रेल जब अपने स्थान से चलती है तब सबसे पहले काली माइया के नाम पर इंजन के सामने एक काला बकरा काटा जाता है और उसके खून का टीका इंजन के माथे पर लगाया जाता है। अगर ऐसा न हो, रेल टस-से-मस न हो।’
सैयद नजमुद्दीन से न रहा गया। वे बीच में ही रायजी की बात काटकर बोले, ‘हुजूर, ये रायजी हैं पूरे चोंच। क्या बात लाए हैं! इंजन भाप के ज़ोर से चलता है। उसके लिए न काली माई के बकरे की ज़रूरत है और न गोरी माई की बिल्ली की। फिरंगियों ने तो नकल की। लेकिन खुदा की कसम, ऐसी नकल की कि इस वक्त उनकी दुनिया-भर में धूम है। हां, हुजूर, अब बहुत देर हो गयी है। मुझे एक खबर और गोश-गुजार करना चाहता है। परसों अपने शहर में एक बड़ा अजी़ब वाकया होने वाला है?
नवाब साहब (बहुत जल्दी से)-‘वह क्या? खैरियत तो है?’ सैयद नजमुद्दीन–‘जी हुजूर, घबराने की कोई भी बात नहीं। बड़े-बड़े रईस जाने वाले हैं।’ नवाब साहब-‘अच्छा! रईस लोग जा रहे हैं तो हम भी चलेंगे। दारोगा को हुक्म दो कि तैयारी करे।’ सैयद-‘ये फिरंगी बड़े चलते-पुर्जे होते हैं।’ नवाब-‘खैर, कोई हर्ज़ नहीं। हम लोग चलेंगे। बावर्ची पहले से पहुंच जाए और खाना तैयार रखे। दारोगा वहां आराम का पूरा इंतजाम रखे।’ मुन्ने मियां-‘जी, जाड़ा बहुत है। कोई बात नहीं, जहां हुजूर हों, वहां हम खादिमों का पहुंचना हर तर लाजि़मी है। अगर जाड़े से कुछ तकलीफ...। नवाब-‘नहीं जी, जाड़े से तकलीफ क्यों हो। दारोगा, इन लोगों को कश्मीर के दुशाले की जोडि़यां दे देना और वहां आराम करने का सब बंदोबस्त कर रखना।’ नवाब साहब को रात को बहुत देर तक नींद नहीं आई। हाथी की फांसी के लिए छोटे-बड़े सभी को, बेगम साहिबा को, जब मनाया तब वे भी तैयार हो गयीं। बांदी, मामा और मुगल चाकर, मुंशी और मुसाहिब भी कमर-बस्ता थे। बेगम साहिबा और उनकी सहेलियों के लिए अलग अच्छा प्रबंध था। सैयद नजमुद्दीन ने बहुत विनय के साथ प्रार्थना की-‘हुजूर के गुलामज़ादे की तबीयत बहुत खराब है। बुखार आज तीन दिन से नहीं उतरा है। अगर इजाज़त हो तो बंदा दरे-दौलत पर हाजिर होने के बजाय सीधे ही मैदान में पहुंच जाये।’ नवाब साहब ने इजाज़त दे दी। दस बजे रात नवाब साहब आराम के लिए तशरीफ ले गये। हुक्म हुआ कि ठीक चार बजे सवेरे चलना होगा, गाडि़यां और पालकियां तैयार रहें और मैदान में पहले ही आराम और नाश्ते का बंदोबस्त रहे। तीन बजे रात ही में कोठी के सामने सवारी गाडि़यां और पालकियां लगने लगीं। चार बजे नवाब साहब और बेगम साहिबा को जगा दिया गया। तैयार होते-होते कुछ समय लग गया। तब भी पांच बजे से पहले ही सब लोग सवारियों पर सवार हो गये और यात्रा शुरू हो गयी। मैदान शहर से तीन मील दूर था। खूब सर्दी का मौसम और उस पर अंधेरी रात। कहीं न कोई आदमी दिखाई देता था और न किसी का शोर ही था। नवाब साहब ने फरमाया-‘हम लोग बहुत पहले आ गये। यहां तो अभी कोई भी नहीं आया।’ ‘और कोई आता भी कैसे? कितनी सर्दी है, कितना अंधेरा था!’ मुन्ने मिर्जा ने हां-में-हां मिलाई और कहा-‘हुजूर, इतने सवेरे कौन आ सकता है? यहां तो हुजूर ही का काम था। हुजूर रोज़ चार बजे सवेरे यादे-इलाही में मसरूफ हो जाते हैं इसलिए हुजूर के लिए कोई नई बात नहीं।’ यासीन मिर्जा ने कहा-‘सच है, हुजूर को जगाने की ज़रूरत ही न पड़ी। जब चौकीदार ने आया से अर्ज़ किया कि हुजूर को जगा दो तो आया ने जवाब दिया कि हुजूर पहले से ही जाग रहे हैं। हाफिजजी भी पीछे नहीं रहने वाले थे। बोले-‘हुजूर का यह कायदा कुछ आज ही का नहीं है। मेरे चाचा कहा करते हैं कि हुजूर छुटपन से ही चार बजे सुबह से यादे-इलाही में मसरूफ हो जाते थे। मेरे चाचा कहते थे कि एक बार का जिक्र है कि हुजूर आधी रात तक जागने की वजह से चार बजे न जाग सके। पांच बजे नींद टूटी तब आपको बहुत अफसोस हुआ। आप नौकर पर बहुत नाराज हुए कि तूने चार बजे जगाया क्यों नहीं? फिर उस दिन से आप दिन-भर याद-खुदा-ए मसरूफ रहे और जिस नौकर को गफलत की वजह से आपने डांट बतलाई थी वह तीसरे दिन ऐसा बीमार पड़ा कि महीने भर के बाद चारपाई से उठ सका।
नवाब साहब ने फरमाया-‘अभी हाथी की फांसी में देरी मालूम होती है। कुछ धूप निकल आवे तब लुत्फ भी आएगा। उस वक्त तक हम लोग चाय और नाश्ते से भी फरागत पा जाएंगे। नमाज़ के बाद इन कामों को कर डालना चाहिए।’ नमाज़ खत्म होने के बाद दस्तरखान बिछा, गरम-गदम बढि़या जाफरानी चाय आई। मेवे, कबाब और कोफ्ते और दूसरे लजीज़ सामान रखे गये। बेगम साहिबा का अलग इंतजाम था और नवाब साहब का अलग। खाते-पीते सात बजे। सूर्योदय हुआ। धूप फैल चली। नवाब साहब रफीकों के साथ बाहर निकले। उन्होंने देखा कि मैदान खाली पड़ा है। न कहीं हाथी दिखाई देता है और न कोई हजूम ही। सैयद नज़मुद्दीन का भी कहीं पता नहीं था। लोग इधर-उधर गये। मुसाहिबों ने दौड़ लगाई। बेगम साहिबा और उनकी सहेलियों और नौकरानियों ने भी चिकों के भीतर से बहुत कुछ झांका। परंतु न हाथी दिखाई दिया और न भीड़ ही। इंतजार में रात के साढ़े आठ बजे परंतु कहीं कोई ऐसी बात नज़र न आई, जिससे यह समझा जाता कि मैदान में हाथी क्या लोमड़ी को ही फांसी होने वाली है। अंत में बहुत इंतजार के बाद नवाब साहब ने झल्लाकर हुक्म दिया कि सवारियां तैयार हों, हम वापस जाएंगे।
उस दिन नवाब साहब बहुत नाराज़ रहे। किसी की हिम्मत न थी कि उनसे कुछ कहता। सैयद नज़मुद्दीन पर तो वे बेतरह बिगड़े। तीसरे पहर वे आकर अपने बाहरी कमरे में बैठे। थोड़ी देर बाद वे दिखाई दिए। आकर जमींदोज सलाम करके बैठ गये। नवाब साहब देखते ही उन पर बरस पड़े। बोले-‘तुम बड़े नामाकूल हो। यह क्या हरकत की थी? हमें कितनी तकलीफ हुई और बेगम साहिबा कितनी परेशान हुई! दूर हो मेरी आंखों के सामने से, नमकहराम कहीं का!’ सैयद नज़मद्दीन ने बहुत आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि हुजूर, खता मुआफ हो। मैं समझा नहीं। नवाब साहब-‘शरम नहीं आती, कितना धोखा दिया! क्या बात गढ़ी कि हाथी को फांसी होगी। सैयद नजमुद्दीन हाथ बांधकर बोले-‘हुजूर, मेरी ज़रा-सी गलती नहीं, अगर गलत हो तो गर्दन-जदनी के काबिल समझा जाऊं। मैं ठीक पौने पांच बजे मैदान में पहुंचा। उस वक्त फांसी की तैयारी हो चुकी थी। फांसी की टिकटी खड़ी थी। बहुत तो नहीं लेकिन पांच सौ से ज्यादा आदमी वहां जमा थे। नवाब साहब-‘झूठ-झूठ! मुझे तो आदमी क्या, चिडि़या भी न दिखाई दी।’ सैयद-‘हुजूर, जानबख्शी हो, मेरी बात सुन लीजिए। नवाब साहब-‘अच्छा कहो।’ सैयदजी-‘तो मैं जिस वक्त पहुंचा उस वक्त फांसी होने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। हाथी लाया गया। उसके पैरों में मोटी-मोटी लोहे ही जंजीरें पड़ी हुई थीं। उसके चारों तरफ 109 तिलंगे थे, जिनके हाथों में बहुत पैने बल्लम थे। हाथी के गले में फांसी का फंदा छोड़ा गया। फिर दो फिरंगी आए। टिकटी के पास एक पहियेदार मशीन रखी हुई थी जिसमें फांसी की रस्सा लिपटा हुआ था। ज्यों ही पांच के घंटे पर मुंगरी पड़ी, त्यों ही घड़ी वाले फिरंगी ने ज़ोर से कहा, ‘वन।’ उसके वन कहते ही सब चुपचाप खड़े हो गये। उसने फिर कहा, ‘टू’ और ‘थ्री।’ उसका तीन कहना था कि मशीन के पास खड़े फिरंगी ने कुछ इशारा किया और मशीन घूमने लगी। इधर मशीन घूमने लगी, उधर हाथी की गर्दन ऊपर उठने लगी और दम की दम में वह फड़फड़ाता हुआ ऊपर लटक गया। उसकी जान निकलने में मुश्किल से एक मिनट लगा। यह सब काम पांच बजकर एक मिनट पर खत्म हो गया। नवाब-‘क्या कहा, पांच बजकर एक मिनट पर?’ सैयद-‘जी हां, हुजूर, फिरंगी लोग वक्त के बड़े पाबंद होते हैं।’ नवाब साहब (मुसाहिबों से) - ‘हम लोग किस वक्त पहुंचे थे?’ मुन्ने मिर्जा- ‘हुजूर, हम लोग साढ़े पांच के बाद पहुंचे होंगे।’ सैयद (जल्दी से)-‘तो बात यह है। उस वक्त तक तो सब कुछ खत्म हो चुका था।’ नवाब साहब-‘क्या हाथी की लाश को भी इतनी जल्द उठा ले गये?’ सैयद-‘हुजूर, गड्ढा खुदा तैयार था। उधर हाथी मरा, उधर उसे घसीटकर गड्ढे में डाल दिया। पांच मिनट में उसे तोप दिया गया।’ सैयद-‘हुजूर, मैंने मैदान छान डाला और जब मैंने देखा कि हुजूर तशरीफ नहीं लाए, तब यह समझ करके कि सर्दी की वजह से हुजूर ने आने का इरादा तर्क कर दिया होगा, मैं वापस चल दिया।’ नवाब साहब-‘तो तुमने हाथी को फांसी पर चढ़ते अपनी आंखों से देखा?’ सैयद-‘हुजूर, खुदा की कसम, इन्हीं आंखों से देखा। जिंदगी-भर नहीं भुलूंगा। कलंक इस बात का है कि हुजूर वक्त से न पहुंचे।’ नवाब-‘लेकिन ऐसी भी क्या जल्दी थी, जरा सवेरा हो लेने देते, तब उसे फांसी देते।’ सैयद-‘हुजूर, फिरंगियों के काम ऐसे ही होते हैं। वे अपने कामों को चाहे जलजला आवे और चाहे बिजली गिरे, एक मिनट भी इधर-उधर नहीं होने देते।’
साभार : हिंदी समय डॉट कॉम
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