शमशेर सिंह
“राज्य में तीन साल में करीब 27 फीसदी बाघों का शिकार हुआ। लेकिन प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) आलोक कुमार के मुताबिक, बाघों की कुल मौतों में 90 फीसदी सामान्य है”
मध्य प्रदेश में अवैध शिकार और दूसरी वजहों से बाघों की मौत में काफी बढ़ोतरी हुई है। हाल में मध्य प्रदेश के वन मंत्री विजय शाह ने विधानसभा में जानकारी दी कि प्रदेश में एक जनवरी 2018 से एक जनवरी 2021 के बीच 93 बाघों की मौत हुई, जिसमें 25 की मौत का कारण अवैध शिकार था। मतलब यह कि तीन साल में करीब 27 फीसदी बाघों का शिकार हुआ। लेकिन प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) आलोक कुमार के मुताबिक, बाघों की कुल मौतों में 90 फीसदी सामान्य है। दस फीसदी ही अवैध शिकार के कारण मरे हैं, उसके लिए आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं। पिछली बाघ गणना में प्रदेश में बाघों की संख्या में इजाफे और अवैध शिकार पर नियंत्रण का दावा करने वाले वन विभाग के अधिकारी यह मानने को तैयार नहीं कि बाघों की मौत चिंता का विषय है।
मध्य प्रदेश में बाघों पर संकट केवल अवैघ शिकार की वजह से नहीं है। विकास के नाम पर खत्म हो रहे जंगल भी उनके अस्तित्व के लिए बड़ा संकट है। केन-बेतवा लिंक परियोजना के लिए पन्ना टाइगर रिजर्व का बड़ा भू-भाग डूबने वाला है। इस परियोजना में दोधन बांध बनाया जा रहा है। इससे बुंदेलखंड को सिंचाई के लिए पानी तो मिलने का दावा है, लेकिन रिजर्व का करीब 4141 हेक्टेयर जंगल डूब जाएगा जिसमें 900 हेक्टेयर का कोर क्षेत्र भी है।
पहले ही जंगलों की अवैध कटाई से वन क्षेत्र तेजी से कम हो रहा है। ऐसे में इस तरह की परियोजनाएं संकट को और बढ़ा रही हैं। पन्ना टाइगर रिजर्व में हाल के कुछ वर्षों में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ी है, ऐसे में इस परियोजना से बाघों पर विपरीत असर पड़ना तय है। पर्यावरणविदों ने परियोजना का काफी विरोध किया मगर केंद्र के दबाव में सारे विरोधों को दरकिनार कर दिया गया है। तर्क दिया जा रहा है कि परियोजना में रिजर्व का 41 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र डूब रहा है। इसका कुल क्षेत्रफल 576 वर्ग किलोमीटर है।
जानकारों को इससे भी बढ़कर हैरानी वन विभाग के रवैए पर है, जो बाघों की ज्यादातर मौत को स्वाभाविक मानकर अवैध शिकार के आंकड़ों को भी खारिज करता है। एक तथ्य यह भी है कि अवैध शिकार के अलावा बाघों की आपसी लड़ाई (टेरीटोरियल फाइट) मेें भी काफी मौत हुई हैं। इसे भी बाघों की बढ़ती संख्या से जोड़कर स्वाभाविक ही माना जा रहा है। राज्य में 90 फीसदी बाघों की मौत इन्हीं दो वजहों से हो रही है। 2012 से अभी तक राज्य में करीब 200 बाघों की मौत हो चुकी है। इसके उलट कर्नाटक में यह संख्या करीब 132 है, जो कुल बाघों की संख्या में मामले में मध्य प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है। हालांकि बाघों की मौत के मामले में दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र का नंबर आता है।
जानकारों का मानना है कि मध्य प्रदेश में बाघों की मौत की मूल वजहों पर सरकार ध्यान नहीं दे रही है। वर्ष 2018 में राज्य में कुल 13 बाघों की मौत हुई, तो 2019 में यह आंकड़ा 28 पहुंच गया। 2020 में मरने वाले 26 बाघों में 21 के मौत संरक्षित वन क्षेत्र में ही हुई है। इससे स्पष्ट है कि मौतें लगातार बढ़ रही हैं लेकिन राज्य सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। केंद्र का काफी पुराना सुझाव है कि बाघों की सुरक्षा के लिए विशेष बल का गठन किया जाए, जिसका सारा खर्च केंद्र वहन करेगा, लेकन मध्य प्रदेश में आज तक इस मामले में कुछ नहीं किया गया। आलोक कुमार इस सवाल पर कहते हैं कि बल के गठन को लेकर फिलहाल कोई फैसला नहीं किया गया है। सरकार का यह जवाब तब है जब राज्य में बाघों की मृत्यु दर कई साल से देश में सबसे अधिक बनी हुई है।
वन प्रबंधन पर फॉरेस्ट मैनेजमेंट विदाउट टियर्स नामक किताब लिखने वाले और भारतीय वन सेवा से सेवानिवृत्त अधिकारी राम गोपाल सोनी का मानना है कि मौतों की एक वजह बाघों के लिए पर्याप्त खाना-पानी न मिल पाना भी है। वे कहते हैं, ‘‘इस ओर वन विभाग कोई काम नहीं कर रहा है और आधारहीन तर्क दे रहा है। केवल दो वजहें दूर कर दी जाएं तो बाघों की मौत को काफी कम किया जा सकता है। एक, सभी रिजर्व में बाघों के लिए खाने और पानी की पर्याप्त व्यवस्था हो। दूसरे, स्थानीय लोगों को जोड़कर सूचना तंत्र मजबूत किया जाए। यह काम पेंच में हुआ है, जिसकी वजह से यह कई साल से देश में सबसे बेहतर बना हुआ है। 2018 में भी इसे सभी टाइगर रिजर्व में पहला स्थान दिया गया है।’’
पेंच को छोड़ दिया जाए तो सभी रिजर्व में खाना-पानी का संकट है। केवल नदी के कुछ किलोमीटर में ही पानी और खाना मिलता है, जिससे सभी बाघ वहीं रहना चाह रहे हैं। इस वजह से क्षेत्राधिकार के लिए आपसी लड़ाई हो रही है। रिजर्व के कोर क्षेत्र ही समृद्ध नहीं है। इसकी मूल वजह पानी का संकट है। पानी न होने की वजह से घास के मैदान नहीं है और घास चरने वाले जानवर भी थोड़े हैं। ये जानवर ही बाघों का खाना होते हैं। वन विभाग को चाहिए कि सभी रिजर्व में बड़ी संख्या में पानी के लिए तालाब बनाए।
इसके अलावा पिछले कुछ साल में वन विभाग ने रिजर्व के कोर क्षेत्र से बड़ी संख्या में आबादी को हटाया है। इससे उनके साथ रहने वाले जानवर भी वहां से हट गए। इसके बाद बाघों के लिए खाने का और भी संकट पैदा हो गया। पहले बाघ इन गांवों से जानवरों का शिकार कर भूख मिटा लेते थे।
सोनी कहते हैं कि पेंच अभयारण्य का उदाहरण वन विभाग के सामने है, उसके बाद भी वह कोई सीख नहीं लेना चाहता। आज बाघों की मौत पन्ना और बांधवगढ़ में ही ज्यादा हो रही है। पेंच में स्थिति बिल्कुल उलट है। इसकी मूल वजह वहां के कोर क्षेत्र में बड़ी संख्या में तालाब बनाए गए हैं। इससे वहां बड़ी संख्या में शाकाहारी जानवर हैं, जो बाघों का खाना बनते हैं। यह रिजर्व दूसरों की तुलना में काफी छोटा है, इसके बावजूद यहां बड़ी संख्या में जानवर हैं। उनको यहां से दूसरे रिजर्व में स्थानांतरित किया जा रहा है। पेंच के अलावा सभी रिजर्व में इनकी संख्या काफी कम है। यहां के बेहतर प्रबंधन का नतीजा है कि वर्ष 2010 से लगातार देश में पहले स्थान पर बना हुआ है।
सोनी 2001 से 2004 तक पेंच टाइगर रिजर्व के क्षेत्र संचालक रह चुके हैं। उन्होंने ही पेंच को मोगली लैंड के रूप में प्रसिद्ध कराया था। यहां पर तीन साल में किए गए कामों को उन्होंने अपनी किताब में समेटा है। उसी आधार पर वे कहते हैं कि शुरुआत में पेंच में भी टैंकरों से पानी की सप्लाई की जाती थी लेकिन वहां 22 तालाब बनाने के बाद तस्वीर ही बदल गई। तब से वहां लगातार बाघों की संख्या भी बढ़ रही है और उनके खाने के लिए जानवरों की संख्या भी।
इसके साथ ही वन विभाग को सूचना तंत्र मजबूत करना चाहिए। जब तक स्थानीय लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ा जाएगा तब तक अवैध शिकार को रोकना संभव नहीं है। वन सुरक्षा पुरस्कार का प्रावधान सरकार ने किया है लेकिन वन विभाग के अधिकारी उसका प्रयोग ही नहीं करते। इसमें शिकार की सूचना देने पर ही पुरस्कार देने की व्यवस्था है। बाघों की मौत के मामले में वन विभाग का यह भी तर्क है कि उनकी संख्या काफी ज्यादा हो गई है। इस वजह से वे आपस में लड़ाई करते हैं और मौतें हो रही हैं। आलोक कुमार कहते हैं कि सभी रिजर्व में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जिससे उनके रहने का स्थान कम पड़ने लगा है। उनके अनुसार एक बाघ के लिए करीब दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की आवश्यकता होती है। सोनी कहते हैं कि सरकार का यह तर्क भी बिल्कुल गलत है। यदि संख्या अधिक है तो पेंच में भी इसी तरह की स्थिति होनी चाहिए, किन्तु वहां ऐसा नहीं है। रिजर्व का क्षेत्र कम नहीं है, वहां बाघों के रहने लायक क्षेत्र कम है, ऐसा क्षेत्र जहां उसे आसानी से पानी और खाना मिल जाए। रिजर्व के कोर और बफर दोनों क्षेत्रों में पर्याप्त खाना और पानी की व्यवस्था करनी चाहिए, जो अभी नहीं है।
इसके अलावा, वन विभाग कुल बाघों की संख्या के आधार पर क्षेत्र का आकलन करता है, जबकि क्षेत्र (टेरेटरी) केवल नर बाघ का होता है। उसके अंदर ही मादा बाघ का क्षेत्र होता है। कुल बाघों में करीब तीन चौथाई तो मादा बाघ होती है। इस तरह से क्षेत्र की उपलब्धता को केवल नर बाघ के आधार पर ही देखा जाना चाहिए।
सोनी कहते हैं कि सरकार बड़ी संख्या में तालाब बना दे तो सभी रिजर्वों की तस्वीर पूरी तरह बदल जाएगी। पानी से वहां घास के मैदान होंगे, शाकाहारी जानवरों का झुंड होगा। इससे बाघों को आसानी से खाना और पानी मिलेगा तो क्षेत्राधिकार की लड़ाई लगभग खत्म हो जाएगी। जंगल को पानी और खाने के लिए समृद्ध बनाना होगा। सरकार को चाहिए कि पेंच के मॉडल को हर जगह लागू करे।
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