लेखक - ज्ञानेन्द्र रावत
सुंदर लाल बहुगुणा |
21 मई २०२१ को प्रख्यात पर्यावरणविद, गांधीवादी, चिपको आंदोलन के प्रणेता और सिल्यारा के संत के नाम से विख्यात पद्म विभूषित सुंदर लाल बहुगुणा का ऋषिकेश एम्स में निधन हो गया। उनका 8 मई से ऋषिकेश एम्स में इलाज चल रहा था। 9 जनवरी, 1927 को हिमालय की तलहटी में टिहरी गढ़वाल के मरोड़ा गांव में तत्कालीन रियासत के वन अधिकारी के यहां जन्मे सुन्दर लाल बहुगुणा को पेड़ों से प्रेम विरासत में मिला। बीए ऑनर्स करने के बाद समाज विज्ञान में एमए करने की इच्छा लेकर दिल्ली आए, लेकिन डिग्री के बजाय समाज से सीधे जुड़ना उन्होंने अधिक श्रेयस्कर और व्यावहारिक समझा। वापस गांव लौटकर आजादी के बाद भी तब तक रियासत के खिलाफ लड़ते रहे जब तक कि रियासत का तख्ता उलट नहीं दिया।
राजनीति के क्षेत्र में आने के लिए उन्हें श्रीदेव सुमन ने प्रेरित किया। बाद में उन्होंने राजनीति छोड़ दी और विनोबा जी के भूदान आंदोलन से जुड़ गए। शादी के बाद कुछ समय तक टिहरी के पास आश्रम बनाकर वहीं खेती, पशुपालन कर गुजारा करते रहे और बच्चों खासकर लड़कियों को नि:शुल्क शिक्षा देते रहे। इस बारे में उनका मानना रहा कि राजनीति में जन समस्याओं का हल नहीं है। यही प्रमुख कारण रहा कि बाद में मैं हिमालय के दूरदराज के गांवों के लोगों की समस्याओं को दूर करने की गरज से उनके साथ जुड़ गया। चिपको आंदोलन के दौरान मैंने पाया कि पेड़ों को काटने से, वह चाहे सरकार काटे या स्थानीय लोग, अकेला हिमालयी क्षेत्र ही नहीं, वरन पूरा देश तबाह हो रहा है और इसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। टिहरी के जंगल में 26 दिन का अनशन किया। नतीजतन 1979 में तत्कालीन जनता सरकार को हिमालयी क्षेत्र में हरे पेड़ों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी, जिसे बाद में इंदिरा गांधी की सरकार ने कानून का रूप देकर स्थायी बना दिया। धीरे-धीरे इस आंदोलन को न केवल समूचे विश्व में व्यापकता मिली, बल्कि इसने समूची दुनिया में प्रकृति के सरंक्षण का नया संदेश दिया।
टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के नायक रहे बहुगुणा को चिपको आंदोलन ने विश्व परिदृश्य पर पर्यावरणवेत्ता के रूप में ख्याति दी। वैसे तो उन्हें जमना लाल बजाज, शेर-ए-कश्मीर, सरस्वती सम्मान, राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, स्टाकहोम आदि बहुतेरे पुरस्कार मिले, फिर भी पद्म विभूषण सम्मान और राइट लाइवली हुड आदि जैसे वैकल्पिक नोबेल कहे जाने वाले पुरस्कारों से सम्मानित बहुगुणा जी ने कभी भी न अपने लिए और न अपने आंदोलन के लिए सरकार या विदेशों से मदद ली।
मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद वे दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए। उन्होंने दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए आन्दोलन किया। पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से उन्होंने सिलयारा में ही ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ की स्थापना की। सन् 1979 में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए उनका सोलह दिन तक किया गया अनशन काफी चर्चित रहा। चिपको आन्दोलन के कारण तो वह विश्वभर में वृक्ष मित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए। उनके कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नामक संस्था ने 1980 में इनको पुरस्कृत किया।
असलियत में पर्यावरण को स्थाई सम्पत्ति मानने वाला यह महापुरुष ‘पर्यावरण गांधी’ के नाम से जाना गया। उनका दशकों पहले दिया गया सूत्र वाक्य ‘धार एंच पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला’ आज भी न सिर्फ पूरी तरह प्रासंगिक है, बल्कि आज इसे लागू करने की जरूरत और अधिक नजर आती है।
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