बाल कविता : एक बार पापा बन जाऊं








बाल कविताएक बार पापा बन जाऊं

उस दिन यूं ही लगा सोचने, जो कुछ पुस्तक में होता है

जाने कैसे निकल पेन से, कॉपी पर वह लिख जाता है।

बड़े शान से यही बात जब, मैंने पापा को बतलाई।

हंसे जोर से गाल थपककर, बात मुझे कुछ यूं समझाई।

जो कुछ पुस्तक में होता है, दिमाग उसको ले लेता है।

और पेन में उसको भरकर, कागज पर टपका देता है।’

छोटू हूं न इसीलिए तो, बात न समझा इतनी सी मैं।

एक बार पापा बन जाऊं, तब समझूंगा सब की सब मैं।

- दिविक रमेश

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