कृष्ण प्रताप सिंह
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आज सत्तावनवीं पुण्यतिथि है। इस अवसर पर उन्हें याद करने के लिए उनकी जीवन यात्रा को मोटे तौर पर दो हिस्सों में विभाजित कर सकते हैं। पहला, 15 अगस्त, 1947 से पहले का, जब उन्होंने देश की आजादी के विकट संघर्ष में रत रहकर अपने जीवन के लगभग नौ साल जेलों में बिताये। इसी दौर में उन्होंने हमें ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसी बहुमूल्य पुस्तक भी दी, जिसका आज भी कोई तोड़ नहीं है। और दूसरा, 15 अगस्त, 1947 के बाद का, जिसमें वे अपनी आखिरी सांस तक देश के प्रधानमंत्री रहे और आधुनिक भारत का निर्माण किया।
आज इक्कीसवीं शताब्दी के इक्कीसवें साल में हमारी नयी पीढ़ी के लिए उन दुश्वारियों की कल्पना भी मुश्किल है, जो आधुनिक भारत के निर्माण के दौरान नेहरू ने उठाईं। इसे समझना चाहें तो बात को 1947 के इंडियन इंडिपेंडेंस बिल से शुरू करना होगा, जो उसी साल पांच जुलाई को पारित हुआ, 18 जुलाई को इंग्लैंड के किंग एम्परर जार्ज सिक्स्थ की, जो तब तक भारत के सम्राट भी हुआ करते थे, स्वीकृति के बाद कानून और हमारी आजादी का बायस बना।
इस कानून पर बहस के वक्त इंग्लैंड की संसद में विपक्ष के नेता विन्स्टन चर्चिल ने इसका विरोध करते हुए न सिर्फ यह कहा था कि भारतवासी स्वशासन के लिहाज से पूरी तरह अयोग्य हैं, बल्कि यह भविष्यवाणी भी कर डाली थी कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में निर्मित न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवा, रेलवे व लोक निर्माण आदि की संस्थाओं का पूरा तंत्र खत्म हो जायेगा। इतना ही नहीं, भारत सांपों व सपेरों वाले दौर में वापस चला जायेगा क्योंकि भारतीय नेताओं की जो पीढ़ी हमसे लड़ रही है, यह खत्म होगी तो भारतीय अपने ‘असली रंग’ में आ जायेंगे!
भारत स्वतंत्र हुआ तो उसके समक्ष चर्चिल की भविष्यवाणी को गलत सिद्ध करने की विकट चुनौती थी। इसके बावजूद भाखड़ा व नंगल जैसे ‘आधुनिक भारत के नये तीर्थों’ के रास्ते भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो की गर्वीली उपलब्धियों तक पहुंचा, तो इसका श्रेय उसके पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को जाता है।
यह भी पं. नेहरू का ही जीवट था कि बंटवारे के वक्त दोनों तरफ की पगलाई हुई हिंसक जमातों को यह साफ संदेश देने में उन्होंने कोई कोताही नहीं की कि हमारे पास सह-अस्तित्व का बस एक ही विकल्प है सह-विनाश। गौरतलब है कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व उनके द्वारा पड़ोसी चीन से किये गये उस बहुचर्चित पंचशील समझौते का भी हिस्सा था, 1962 में जिसे तोड़कर चीन ने देश पर आक्रमण किया। निस्संदेह, यह बड़ा विश्वासघात था, जिससे नेहरू टूटकर रह गये। अंततः 1964 में आज के ही दिन उनका निधन हो गया।
धार्मिक संकीर्णतावादियों से निपटने में पं. नेहरू ने कतई यह नहीं देखा कि उनका धर्म कौन-सा है और वे उनकी कांग्रेस पार्टी के अन्दर के हैं अथवा उसके बाहर के। सितम्बर, 1950 में पुरुषोत्तमदास टंडन की अध्यक्षता में नासिक में कांग्रेस का सम्मेलन हुआ तो पं. नेहरू ने उसके मंच से अपनी पार्टी के संकीर्णतावादियों से कहा, ‘पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर जुल्म हो रहे हैं तो क्या हम भी यहां वही करें? यदि इसे ही जनतंत्र कहते हैं तो भाड़ में जाये ऐसा जनतंत्र!’ फिर उन्होंने सम्मेलन के प्रतिनिधियों से कहा, ‘आप मुझे प्रधानमंत्री के रूप में चाहते हैं तो बिना शर्त मेरे पीछे चलना होगा। नहीं चाहते तो साफ-साफ कहें। मैं पद छोड़ दूंगा और कांग्रेस के आदर्शों के लिए स्वतंत्र रूप से लड़ूंगा।’
प्रसंगवश, वे एक ऐसे सम्पन्न परिवार से थे, जिसके बारे में प्रचारित था कि उसके सदस्यों के कपड़े देश में नहीं, पेरिस में धोये जाते हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपने जीवन में किस तरह की विलासिता रहित जीवनशैली अपना रखी थी। उनके नाती राजीव गांधी पढ़ने के लिए इंग्लैंड गये तो वे ही उन्हें नियमित खर्च भेजते थे। एक बार राजीव ने उनसे कुछ ज्यादा पैसों की मांग की तो उन्होंने उन्हें लिखा, ‘तुम्हारी परेशानी जानकर पीड़ा हुई। पर मेरा विश्वास करो, मैं जो कुछ तुम्हें भेज पा रहा हूं, वही मैं अपने वेतन से अफोर्ड कर सकता हूं। मेरी पुस्तकों की रायल्टी भी अब बहुत कम मिलती है। लगता है, अब कम लोग मुझे पढ़ते हैं। मगर तुम वहां खाली समय में कोई काम क्यों नहीं करते?’ इस सीख के बाद राजीव गांधी ने खुद कई मामूली समझे जाने वाले काम किये और अपना खर्च चलाया।
पं. नेहरू हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के अकेले ऐसे नायक हैं, जो विचारों के स्तर पर अपने समर्थकों या विरोधियों को ऐसी कोई छूट नहीं देते, जिससे किसी सोच के प्रति उनका तनिक भी झुकाव साबित किया जा सके। स्वतंत्रता संघर्ष और बाद में प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने जैसे बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहा, उसके मद्देनजर उनकी और कुछ कहकर भले ही आलोचना की जा सकती हो, यह कहकर नहीं की जा सकती कि उनकी प्रगतिशीलता में कोई लोचा है। उनकी व्यक्तिगत व सार्वजनिक नैतिकताओं में भी कोई विरोधाभास नहीं था।
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