कविता : सब जगह वो
















कविता

सब जगह वो

है सब जगह वो

मदद को, कहां नहीं है

तुम दौड़कर पहुंचना

लगे जहां नहीं है

बोझिल मन से

घूम रही है धरती

कहने भर को भी हल्का

यहां आसमां नहीं है

कोई चारदीवारी में

कोई बाहर लाचार

कहीं सांसें कम

कहीं ठीक हवा नहीं है

घबराए, हड़बड़ाए सब

उंगलियां हैं औरों पर

खुद में गलत लेकिन

कोई यहां नहीं है

बता रही है प्रकृति

जीने का सलीका

ना बदले प्रवृत्ति इनसान

ये भी तो अच्छा नहीं है।

- ज्योत्सना कलकल

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