हास्य कविता : दिल्ली के दरवज्जे खुल जा !

हास्य कविता : दिल्ली के दरवज्जे खुल जा !











पहरेदारों की महफिल में चोर-चोर का शोर मचा,
गलियारों में जाग हो गई, कुछ ऐसा घनघोर मचा,
दाढ़ी के तिनके गिनवाते दूध धुले मौसेरे भैया
नौकरशाही ताल दे रही ताकधिना-धिन, ता ता थैया
किस्सा जो कुर्सी का देखा तू सारा का सारा बोल।
देख जमूरे, देख तमाशा, जनता का जयकारा बोल ॥
 
दिल्ली के दरवज्जे खुल जा, बहुत नहीं तो थोड़ा खुल जा,
नेताजी ने तेरे दर पर अपने सर को फोड़ा-खुल जा,
खुल जा सिमसिम, सिमसिम खुल जा, चालीस चोर उचारे मंतर,
काले-काले सब तेरे साले, कोई भेद न कोई अंतर,
किसने किसको लूट लिया है-किसने, किसको मारा बोल |
देख जमूरे देख तमाशा जनता का जयकारा बोल |

लिए लुकाटी खड़ा करीबा बीच-बजारे किसे पुकारे?
हम सब फूंक रहे घर अपना कोई बाकी नहीं बचारे।
 
हम तो परंपरा के पालक, भैंस उसी की जिसकी लाठी,
द्वापर त्रेता सतयुग से ही चली आ रही ये परिपाटी,
अपनी चादर से बाहर ये किसने पैर पसारा बोल।
देख जमूरे देख तमाशा जनता का जयकारा बोल ||

नदी किनारे बगुला बैठा ध्यान लगाए श्री राम में,
नेताजी पारंगत पूरे दंड-भेद में, साम-दाम में,
राजा भोज बने बैठे हैं जाने कितने गंगू तेली,
फोड़-फोड़ कर बांट रहे हैं राजनीति के गुड़ की भेली,

जनता का धन किसने लूटा, किसने इसे डकारा बोल ।
दुख जमूरे देख तमाशा जनता का जयकारा बोल ॥
 
प्यारे मनमोहन भैया को पागल कुत्ते ने काटा था।
पानी और पड़ गया उसमें घर में जो गीला आटा था,
कपड़े पहिने कूद गया क्यों वो नंगों के इस हमाम में
जपुजी जपता ध्यान लगाता, वाहेगुरु के सत्तनाम में,
कलियुग केवल नाम अधारा सब असार संसारा बोल ।
बोल जमूरे बड़े जोर से जनता का जयकारा बोल ॥

बोल कि जनता सावधान है, सावधान हैं चारण तेरे,
अपने संकल्पों के द्वारा दूर करेंगे घने अंधेरे
बोल कि हम अपने गुलशन में आग नहीं लगने देंगे, ,
भारत-माता के आंचल में दाग नहीं लगने देंगे,
लाल किले पर जो लहराता है आंखों का तारा बोल ।
बोल जमूरे बड़े जोर से जनता का जयकारा बोल ।

- बशीर अहमद मयूख 

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