कविता : खूंटा तोड़ना - महेश चंद्र पुनेठा

कविता : खूंटा तोड़ना 











जब तक खूंटे पर बंधी होती है गाय

या बाड़े के भीतर रहती है

उसकी अच्छी सेवा-सुश्रुषा होती है

जैसे ही खूंटा तोड़कर भागती है

या बाड़े के बाहर जाती है

डंडे पड़ने में देर नहीं लगती है।

गाय समझ नहीं पाती होगी

इस व्यवहार को

उसे क्या पता कि

खूंटी तोड़ना

या बाड़े से बाहर निकलना

नापसन्द रहा है सभ्य समाज को

वह भी अपवाद नहीं।

- महेश चंद्र पुनेठा

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