कविता : संजय सिंघई की कलम से








जख्म

वक़्त की किस्सागोई
करते हैं जख्म।
जहां में
कुछ के जख्म हैं कम,
कुछ के हैं ज़्यादा।
ज़ख्म रोज़ लगते हैं,
ज़ख्म रोज भरते हैं,
कुछ ज़ख्म रहते हैं हरे,
कुछ अंतस में किरनीले।
जख्म दहकते हैं पलाश से,
सुलगते सुर्ख लाल,
वसंत में,
बाद भी।
ज़ख्म,
अमूमन
अच्छे होते हैं।
ज़ख्म  निशान छोड़ते हैं,
आत्मा और शरीर पर।
कुछ अमिट रहे आते हैं,
कुछ दो पल मेँ फ़ारिग।
ज़ख्म लगते ही,
हवा भी हो जाती है पराई,
परछाईं भी नहीँ समेटती इनको,
जख्म तो जख्म हैं,
नमक लगे या मरहम,
अपनों के हों या पराए,
जोड़ते हैं 
रिश्ते दर्द के।
जख्मों से है,जिन्दगानी,
खुद
ज़िन्दगी एक ज़ख्म है।
संजय सिंघई
 @कमाल जबलपुरी,

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