कछुओं से बनाये जा रहे सूप और चिप्स, घटती तादाद से वन्यजीव विशेषज्ञ चिंतित



इटावा। स्वच्छ जल में कछुओं की घटती तादाद ने वन्यजीव विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है। कछुओं की दुलर्भ प्रजाति के संरक्षण की दिशा में काम कर रहे अंतर्राष्ट्रीय संगठन टर्टल सर्वाइवल एलायंस (टीएसए) ने माना है कि देश दुनिया में साफ पानी के कछुये की आबादी बहुत तेजी से कम हो रही है। जिले के गढायता गांव मे टीएसए ने गंभीर रूप से प्रलुप्त हो रहे रेड क्राउंड रूफड टर्टल (बटागुर कछुआ ) और थ्री इसट्राईपड रूफड टर्टल (तीन-धारियों वाला रूफड कछुआ ) के सैकड़ों हैचलिंग (अंडे से निकले बच्चे) चंबल नदी क्षेत्र में छोड़े।

इस अवसर पर टर्टल लिमिटेड और टीएसए के बीच एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) भी साइन किया गया। टर्टल लिमिटेड के ब्रांड मैनेजर रूपम देब ने दुर्लभ हैचलिंग को नदी में छोड़े जाने के अवसर पर कहा “ टर्टल लिमिटेड ने टीएसए की विशेषज्ञ टीम के साथ साझेदारी की है, ताकि कछुआ संरक्षण और आसपास के वनस्पतियों और जीवों की संरक्षण से संबंधित गतिविधियों और परियोजनाओं में संलग्न हो कर योगदान दिया जा सके। ब्रांड टर्टल लिमिटेड के प्रतिनिधि के रूप में हम इसे समाज और पर्यावरण को वापस देने के लिए इसे अवसर के रूप में देखते हैं। ”

टीएसए के विकास शोधकर्ता डॉ. सौरभ दीवान ने बताया कि चंबल संरक्षण परियोजना 2006 में शुरू की गई थी। उत्तर प्रदेश वन विभाग के साथ संयुक्त रूप से प्रमुख परियोजनाओं में से एक है जो ताजे पानी के दो कछुओं की प्रजातियों (जो खतरे में हैं) उन पर केंद्रित है जिनके नाम, रेड क्राउंड रूफड टर्टल और थ्री इसट्राईपड रूफड टर्टल हैं। हर साल इन दो प्रजातियों के तीन सौ घोंसलों की चंबल के आसपास क्षेत्र में रक्षा की जाती है।

टीएसए इंडिया की परियोजना अधिकारी, डॉ. अरुणिमा सिंह ने कहा कि इन घोंसलों को मानवयुक्त नदी-किनारे हैचरी में संरक्षित किया जाता है और हैचलिंग को तुरंत उन जन्म स्थलों से छोड़ दिया जाता है जहां इनके घोंसले होते हैं, ताकि शिकारी जानवर इनके अण्डों का कम से कम शिकार कर पाएं।

टीएसए इंडिया कार्यक्रम का प्रबंधन भारतीय संरक्षण जीवविज्ञानियों, वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं द्वारा किया जाता है जो कछुओं को बचाने के लिए स्थानीय समाधान तलाशता है। टीएसए भारत भर में पांच स्थानों पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश के टेरायी क्षेत्र चंबल क्षेत्रों, उत्तर-पूर्व भारत और दक्षिण भारत में में कछुओं का संरक्षण कर रहा है।

उन्होने कहा कि ये नन्हें साफ पानी के कछुये नदी के जल में प्राकृतिक रूप से एक जल गिद्ध की तरह ही कार्य करते है जो नदी में मृत पड़े सड़े गले मांस को खाकर नदी के पानी को हमेशा साफ बनाये रखते हैं। हम सभी को हमेशा ही इन बेहद महत्वपूर्ण वन्यजीवों (जल गिद्धों) की रक्षा हर कीमत पर करनी ही चाहिये।

चम्बल की घाटी कभी खूंखार डकैतों के लिए जानी जाती थी लेकिन अब यह देश में कछुओं की तस्करी का प्रमुख केंद्र बन गयी है। इटावा में पांच नदियों का संगम होने के अलावा कई ऐसे बड़े तालाब हैं, जहां लाखों की तादाद में कछुए पाए जाते हैं। यही वजह है यहां कछुआ आसानी से मिल जाता है। इनको पकड़ कर तस्कर देश-विदेश में बेचते हैं। इटावा में कछुआ तस्करों का नेटवर्क बहुत बड़ा है। पांच नदियों के संगम वाले इलाके पंचनंदा और चंबल में कछुओं के दुश्मन भरे पड़े हैं।

इटावा परिक्षेत्र में कछुओं की तस्करी लंबे समय से जारी है। चंबल, यमुना, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी नदियों के अलावा अन्य छोटी नदियों और तालाबों से तस्कर कछुओं को पकड़ते हैं। 1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य घोषित किया था। इसका मकसद घडिय़ालों, कछुओं (गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले कछुए) और गंगा में पाई जाने वाली डाल्फिन का संरक्षण था। अभयारण्य की हद उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक है। इसमें से 635 वर्ग किलोमीटर आगरा और इटावा में है। इटावा परिक्षेत्र की नदियों में कछुओं की लगभग 55 जतियां पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध हैं।

इटावा और आसपास के क्षेत्रों में 100 से अधिक बड़े कछुआ तस्कर सक्रिय हैं। 1980 से अब तक इटावा से ही सौ से भी अधिक तस्कर गिरफ्तार किए जा चुके हैं, इनके पास से 85 हजार से ज्यादा कछुए बरामद किए गए। इनमें से 14 तस्कर पिछले दो बरसों में पकड़े गए हैं, जिनके पास से 12 हजार से ज्यादा कछुए बरामद हुए। तस्कर 100 रुपए प्रति कछुए से लेकर हजारों रूपए तक में इन्हें बेचते हैं। इटावा में एक किलो चिप्स का दाम 3,000 रुपए हैं। पश्चिम बंगाल पहुंचते-पहुंचते कीमत दस गुना तक पहुंच जाती है।

वन अधिकारियों के अनुसार उत्तर प्रदेश से कछुओं की सबसे ज्यादा सप्लाई पश्चिम बंगाल होती है। यहां से बांग्लादेश के रास्ते चीन, हांगकांग और थाईलैंड जैसे देशों में इन्हें बेचा जाता है। माना जाता है कि कछुओं का मांस इंसानी पौरुष बढ़ाने की दवा का काम करता है। भारतीय कछुओं की खोल, मांस या फिर उसके बने चिप्स की मांग पूरी दुनिया में है। कुछ देशों में कछुए का मांस बहुत पसंद किया जाता है। कछुए के सूप और चिप्स को भी तरह से तरह से बनाकार परोसा जाता है। टरट्वाइज एड इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन में केवल खोल की जेली बनाने के लिए ही सालाना 73 हजार कछुए मारे जाते हैं।

कछुओं के शरीर की निचली सतह (जिसे प्लैस्ट्रॉन कहते हैं) को काट कर घंटों उबाला जाता है। बाद में इसको साफ कर परत को सुखा लिया जाता है। इससे चिप्स तैयार होती है। एक किलो वजन के कछुए में तकरीबन 250 ग्राम चिप्स बनती है।

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