कविता : पिता जी बेपरवाह
- बसंत मिश्र
पिता जी बेपरवाह होते जरूर हैं,
खुद की जरूरत को पूरा करने के लिए न ही वक़्त देते,
न ही पैसा खर्च करते खुद की जरूरत को पूरा करने में ।
चाहे जब देखो मोची की दुकान में अपनी टूटी चप्पलों को लेकर चले जाते हैं,
पर नई खरीदने में हमेशा ही आनाकानी करते ।
बार-बार चश्मे की तिरछी टूटी डंडी को सुधारते या पुराने किसी चश्मे की डंडी को निकाल कर लगा लेते चाहे दोनों डंडी रंग के लिए आपस में मेल नहीं खाती ।
वास्तव में लापरवाह हैं, पिताजी
कुर्ते कमीज की टूटी बटनों को खुद टाँकने लग जाते और उनकी उधड़ी सिलाई को सही करने खुद सुई-धागा लेकर सिलने लगते।
कई बार हाथ के पंजे लहुलूहान भी देखे हैं हमने भी, कुछ पैसे बचाने के चक्कर में ।
वाकई पिता जी बेपरवाह है, खुद के लिए।
जबकि मैंने कई बार अपनी स्कूली ड्रेस,
पेंट घिस कर फाड़ दी,
स्कूल की फिसलपट्टी में फिसल-फिसल कर
ऐसे समय नाराज होकर
दो चार चांटे रसीद कर दिए काम पर जाते वक्त,
फिर भी शाम को आते वक्त उनके हाथों में होता था ड्रेस का कपड़ा, गुड़ की जलेबी के डिब्बे के साथ।
कहते-समझते हुए की बेटा आगे से कपड़े मत खराब करना।
ऐसे ही होते थे हम सबके पिताजी, बेपरवाह खुद के लिए।
- बसंत मिश्र, 13 अगस्त 2022, रामेश्वरम कॉलोनी , जबलपुर
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