जबलपुर | ज्ञानरंजन और सुनयना भाभी ने आज सुबह सात बजे, वरिष्ठकथाकार और अब त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘अन्विति’ के सम्पादक राजेन्द्र दानी और एक्टिविस्ट शरद उपाध्याय पूरे एक दिन भर मेरे गाँव में रहे। लगभग 5-6 घंटे का यात्रा समय छोड़कर। ज्ञान जी पहले भी दो बार राजेन्द्र चंद्रकांत राय, रमेश सैनी और अरुण यादव के साथ बेटियों की शादी में गाँव आ चुके हैं। परन्तु मैं उन यात्राओं के समय उनके साथ लगभग नहीं के बराबर रहा। मुझे यह बात बहुत गहरा संतोष देती है किउनका मेरे प्रति यह स्नेह साधारण नहीं है।
हम सुबह सात बजे ज्ञान जी के घर –101, रामनगर पर इकट्ठे हुए। और रास्ते में दानी जी को साथ लेते हुए निकले। नरसिंहपुर के आसपास किसी ढाबे पर चाय के लिए रुककर लगभग 10 बजे बरमान-घाट पहुँच गये। वहाँ मेरी पत्नी रुक्मिनि के भाई औंकार दीक्षित और उनके पुत्र नी नीतीश दीक्षित (नीतू) ने पूरे दिल से हमारा स्वागत-सत्कार किया। फिर तो पूरे परिवार ने सबको अपना लिया और खूब घुल-मिलकर बातें हुईं। हमने वहाँ अल्पाहार किया और नर्मदा की ओर सैर करने की मंशा से लौटकर चल पड़े । हमने बहाव की विपरीत दिशा में दो-तीन फर्लांग का नौका विहार किया। फिर जल्दी ही लौट आये, क्योंकि सुनयना भाभी और रुक्मिनी अपनी शारीरिक बाधाओं के कारण तट पर ही बैठे रहे थे।
लौटकर हम ने शारदा मंदिर घूमा। वहाँ फैले वटवृक्ष पर सबका ध्यान गया। यह तीक्ष्ण गर्मी में भी प्राकृतिक कूलर का काम करता है। बस इसकी छाया में बैठे रहो। थके हारे लोग यहीं आकर विश्राम करते हैं। मंदिर में दो कमरे पहले ही नीतू ने सुरक्षित करा रखे थे। कुछ देर सबने वहाँ विश्राम किया और यात्रा की थकान मिटायी। गुजरात के एक संत शारदा मंदिर में मिले, जो वहाँ आने और रुकने वाले परकम्मा (परिक्रमा) वासियों को अपने हाथ से भोजन बनाकर परोसते हैं। सुनयना भाभी ने उनसे गुजराती में थोड़ी बातचीत की। पराई जगह पर भाषा भी कितनी सहजता से एक दूसरे को पास लाने और जोड़ने का काम करती है। एक अलग तरह के अपनत्व का भाव अनचाहे ही भीतर धंसता है और वातावरण भावपूर्ण हो जाता है। यह बात अनायास ही उस समय जाहिर हुई।
कुछ देर लेटकर आराम और बातचीत करने बाद हम लंच के लिए सत्धारा (सत्, सात या शत् पता नहीं) की ओर निकल पड़े। हमने दक्षिण से उत्तर की और मतलब छोटी बरमान से बड़ी बरमान जाने के लिए नर्मदा पर डेढ़-दो साल पहले बना पुल चार चकों पर बैठकर लांघा और सत्धारा की ओर निकल पड़े।
नर्मदा पार करने के बाद की चढ़ाई चढ़कर आगे बढ़े तो ज्ञान जी और साथियों को मैंने इशारा कर बताया कि ‘वहाँ, वह प्रकाश दुबे जी का घर है। और थोड़ा आगे बढ़े तो बाईं ओर जो लम्बी टूटी फूटी बिल्डिंग है, जिसकी दो मंजिल गिर चुकी हैं या कहें ढहा दी गयी हैं | मैं प्रकाश दुबे मेट्रिक तक पढ़े। उनके पिता जी श्री शंकरलाल जी दुबे ने उन्हें बड़े अरमान से इंजीनियर बनने जबलपुर भेजा था। पर जबलपुर में परसाई और ज्ञानरंजन जैसों की संगत में बिगड़ गये और इंजीनियरिंग कालेज़ छोड़़ पत्रकार और लेखक बनने की ठान ली। और सफल पत्रकार बनकर सोशल इंजीनियरिंग सीख ली। आजकल वे भास्कर-समूह में समूह-सम्पादक हैं। आज जब26 मार्च को शाम ज्ञान जी के पास बैठा था तो उन्होंने प्रकाश दुबे को नागपुर फ़ोन लगाया और अपनी बरमान-घाट यात्रा के बारे में बताया। वे बहुत खुश हुए और कहा - ‘मुझे बताया होता तो मैं भी आ जाता।’
स्कूल की बिल्डिंग कभी पूरे इलाके की शान थी। इसने लाखों विद्यार्थियों, जिनमें अधिसंख्य ग़रीब थे, को बड़ा बनाया और दूर-दूर तक पहुँचाने का काम पूरी मुस्तैदी से किया। जबलपुर की न्यू एजूकेशन सोसाइटी के के.एल. पाण्डे ने ‘नवीन विद्या भवन’ नाम से 1952 में यह स्कूल खोला था। स्कूल के लिए तीन मंजिला भवन और इसके साथ 52 एकड़ (सीलिंग के बाद अब 36 एकड़) उर्वरा ज़मीन, पास के गांव ‘चांवरपाठा’ के प्रतिष्ठित पालीवाल परिवार की श्रीमती भागीरथी बाई पालीवाल ने दान में दी थी। यहां के ‘छोटे मंदिर’ कहे जाने लाने वाले देव-स्थल सारी देखरेख, वहां के निर्माण कार्य, धर्मशाला आदि का काम 80 वर्ष से ऊपर की उम्र में भी एक राजमाता की तरह करते हमने उन्हें देखा है। उनके पुत्र किशोरी लाल जी पालीवाल राजनीति में रहे और मध्यप्रदेश के विधायक भी रहे। उनके पुत्र दिनेश पालीवाल ने भी अपने जीवन-काल में यशस्वी जीवन जिया।
इस ढहती बिल्डिंग के ठीक सामने का घर स्व. श्री रामप्रसाद नेमा का था। उनके अलावा किसी और दुकान से मेरे घर कभी मिठाई नहीं आती थी। उनके पुत्र श्री विजय नेमा ने इसी स्कूल से मेट्रिक में मेरिट में स्थान हासिल किया था और पूरे इलाक़े से वाहवाही पायी थी। उनके पुत्र इस समय जबलपुर के सफल और चर्चित नेत्र चिकित्सक अखिलेश नेमा हैं। मैंने विजय नेमा जी की दादी और अखिलेश नेमा की परदादी छब रानी को लगभग 90 अंश पर झुकी कमर के साथ घर के सारे काम करते हुए अनेक बार देखा। अखिलेश नेमा ने अपने चिकित्सा केन्द्र का नाम ’छबि’ उन्हीं के नाम पर रखा है।
सत्धारा में नर्मदा किनारे एक ढाबे पर हमारे लंच की व्यवस्था थी। गक्कड़ (बाटी), भरता, दाल, चूरमा का सादा भोजन सरदार जी ने बड़े स्नेह से कराया और तृप्त होकर वापस छोटी बरमान आ गये। अब तक लगभग दो बज चुके थे। सबका मन लौटने का बन चुका था। लगभग एक घंटे सबने एक झपकी भर आराम किया और निकलने के लिए तैयार हो गये। मेजबानों ने हमसबका स्वागत सत्कार गहरे अपनत्व और ऊर्जा भरे उत्साह से किया और भावभरी विदाई भी दी।
जबलपुर में प्रवेश कर मेडिकल कालेज़ के काफ़ी-हाउस में एक स्वादिष्ट और संतोषदायी चाय राजेन्द्र दानी जी के आग्रह पर लेने के बाद हम लौटे और के.जी. बोस नगर के गेट पर दानी जी को छोड़ते हुए, वापस अपने घर लौट आये। पूरे बारह घंटे ज्ञान जी, सुनयना जी, दानी जी और शरद भाई के साथ की यह यात्रा, लम्बे समय तक मुझे कुरेदती रहेगी। इसे लिख ही दिया ताकि यह कुरेदन कुछ तो कम हो।
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