किताबनामा - ख़तों के आईने में : साहित्य के सत्तर साल
(कुछ चेहरे, कुछ अक्स, कुछ हक़ीक़तें, कुछ अफ़साने)
नवारुण प्रकाशन से किताब आई है, ख़तों के आईने में (कुछ चेहरे, कुछ अक्स, कुछ हक़ीक़तें, कुछ अफ़साने) बुर्जो की निष्कवच परिधियाँ : खण्ड -1। इसमें अपने समय के अप्रतिम कथाकार और ‘पहल’ के संपादक ज्ञानरंजन को लिखे गए पत्र हैं। कोई सत्तर सालों के दरम्यान लिखे गए पत्रों पर यह किताब केंद्रित है। शायद यह पहली बार हुआ है कि किसी एक लेखक को बहुत से लेखकों, कवियों और अन्य कलावंतों के द्वारा लिखे गए पत्रों को संकलित और प्रकाषित किया गया है। अन्यथा किसी महत्वपूर्ण लेखक के द्वारा बहुतों को लिखे गए अथवा किसी एक को ही बहुत से लिखे गए पत्रों (जैसे पंत के सौ पत्र बच्चन के नाम) को ही अब तक हिंदी में प्रकाशित किया जाता रहा है।
- पत्र में भावनात्मक आवेग और व्यक्तिगत बातें
यों पत्र एक निजी निधि की तरह होते हैं, जो एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति को पूरी निजता के साथ लिखे जाते हैं। उनमें भावनात्मक आवेग होता है, व्यक्तिगत बातें होती हैं और किसी तीसरे के बारे में कही गई ऐसी बातें भी हो सकती हैं, जिन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके यही पत्र जब किसी महत्वपूर्ण लेखक को अन्य महत्वपूर्ण लेखकों-व्यक्तियों-संपादकों के द्वारा लिखे गए हों, तो वे धरोहर की महत्ता हासिल कर लेते हैं। पत्र लेखक की मेज पर लिखे जाते समय पत्र उसकी संपदा होते हैं और लिखकर भेज दिए जाने के बाद, पाने वाले की। पर वे अपने समय के इतिहास का भी हिस्सा होते हैं। रचनाकार अपने लेखन की मार्फत एक तरह से सार्वजनिक कार्यकर्ता हुआ करते हैं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने को और अपने विचारों सहित अपने परिवेष को अभिव्यक्त तथा प्रभावित करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में उनके द्वारा लिखे और पाए गए पत्र, निजी होते हुए भी अपने व्यापक अर्थों में समाज की थाती ही होते हैं। उनमें वह सत्य झलकता है, जो अक्सर किसी रचना में भी अभिव्यक्त नहीं हो पाता। उनमें वह सत्य भी होता है जो संवाद के तौर पर जी खोलकर भेजा-पाया गया होता है। पत्र दो व्यक्ति लिखते-पढ़ते हैं, पर उनमें जो होता है, वह अन्यों के लिए भी मूल्यवान हो सकता है।
- ज्ञानरंजन एक सचेत, सजग विचारवादी, सतर्क संपादक
ज्ञानरंजन एक सचेत रचनाकार, सजग विचारवादी, सतर्क संपादक और एक मनुष्य के तौर पर सद्भावी किंतु सिद्धांतों के प्रति जबरदस्त कठोर व्यक्ति के रूप में न केवल साहित्य में बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी अपना ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। इसीलिए उन्हें लिखे गए और उनके द्वारा लिखे गए, दोनों ही तरह के पत्रों का अपना विषेष महत्व है।
- दो हजार पत्र अब भी मौजूद
कथाकार और ‘अकार’ के संपादक प्रियंवद ने उनके पत्रों का चयन, टिप्पणी, प्रसंग और भूमिका लेखन का ज़रूरी काम करते हुए उनका प्रकाशन कराकर साहित्य समाज के प्रति एक अत्यंत आवश्यक जिम्मेदारी का निर्वहन किया है। ज्ञानरंजन जी ने मुझे बातचीत में बताया कि बहुत से पत्रों के खो जाने-नष्ट हो जाने पर भी लगभग दो हजार पत्र उनके पास मौजूद थे, जो अब प्रियंवद के हवाले कर दिए गए हैं।
- प्रियंवद के संपादन में ये पत्र बोलते-बतियाते हैं
प्रियंवद ने पत्रों को केवल संकलित-संपादित भर कर दिया होता, तो किताब ऐसे पत्रों का संकलन भर बनकर रह जाती, जिसमें अपने समय, परिवेश और घटनाओं की कोडिंग तो होती पर हम उसे डिकोड न कर पाते। सवाल करते और उत्तरों से महरूम रहते। बहुत से संशय पैदा होते और एक धुंध बन कर रह जाते। प्रियंवद ने पत्रों की प्रकाशन-प्रस्तुति में नवाचार किया है। यह पहली बार हुआ है कि जिसने पत्र लिखे हैं, उनका परिचय दिया गया है। उनके बारे में किसी तीसरे से लिखवाया भी गया है। पत्र में कोई संदर्भ आया है तो उन्होंने उसे खोलने वाली टिप्पणियाँ ही नहीं दी हैं, बल्कि अन्य पत्रिकाओं और किताबों अथवा अन्य पत्रों से उसका पूरा-पूरा खुलासा भी कर दिया है। अब ये पत्र बोलते-बतियाते हैं। अपना अंतरंग सार्वजनिक करते हैं और सत्तर सालों के समय तथा परिवेश को अपनी तरह से व्याख्यायित भी करते हैं। प्रियंवद यह न करते तो यह किताब हमारे लिए एक ऐसा ख़जाना होती, जिसके दरवाज़े बंद होते और उसे खोलने के लिए हमारे पास कोई कुंजी न होती, जैसे कि ‘खुल जा सिम-सिम’ नाम की कुंजी का अफ़साना हम पढ़ते रहे हैं।
- इन लेखकों के पत्र शामिल
इस किताब में जिन लेखकों के पत्र हैं, वे हैं, ज्ञानरंजन जी के पिता श्री रामनाथ सुमन, भवदेव पाण्डेय, शील, अशोक सेकसरिया, सईद, काशीनाथ सिंह, कमलेश्वर विजयदान देथा, नेत्रसिंह रावत और फिल्मकार मणि कौल के संयुक्त पत्र, कुमार विकल, वीरेन डंगवाल, हृदयेश, सुमति अय्यर, भीष्म साहनी और राजेंद्र यादव।
इसके लिए प्रियंवद का धन्यवाद और उन्हें साधुवाद भी।
इस किताब में तीसरे शख़्स की भूमिका अहम
इस किताब के पीछे ज्ञानरंजन और प्रियंवद के सिवा एक तीसरा शख़्स भी है, जो पूरी तरह से हमारे सामने नहीं आया है। वह पार्श्व में है और अपनी मौन-भूमिका में है। वे हैं, मनोहर बिल्लौरे। वे मेरे मित्र और पड़ोसी हैं और हमने साथ-साथ कई दशकों तक अध्यापन कार्य भी किया है। बहुत से आयोजनों, आन्दोलनों और अभियानों में वे मेरे साथी रहे हैं। कवि हैं और बहुत मानीख़ेज कविताएं उन्होंने लिखी हैं। उनका साहित्य भंडार से एक कविता संग्रह ‘गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध’ आ चुका है और दो संग्रहों जितनी कविताएं उनकी नोटबुक में आराम फरमा रही हैं। बिल्लौरे ज्ञानरंजन जी के परम् सहयोगी के रूप में पिछले बीस-पच्चीस सालों से अपना योगदान कर रहे हैं। पहल की बहुत सी जिम्मेदारियों को उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ निभाया है। ज्ञान जी ने उन्हें पहल के सभी उपलब्ध अंक और बहुत सी किताबें सम्हाल कर रखने के लिए सौंप दी हैं। अपने सारे पत्र भी उन्होंने मनोहर भाई के हवाले कर दिए थे। मनोहर भाई ऐसे आदमी हैं, कि वे ज्ञान जी के द्वारा सौंपी गई सामग्री को उस आलमारी से लाकर इस आलमारी के हवाले करके चुपचाप नहीं बैठ जाते। वे एक जिम्मेदार कस्टोडियन की भूमिका में अपने को रखते हैं।
ज्ञान जी की कहानियों, किताबों और पत्रों का क्या ऐतिहासिक महत्व है, वे ख़ूब जानते हें और उनका सदुपयोग कैसे होगा, इसके लिए सदा बेचैन रहा करते हैं। ज्ञान जी का लिखा-छपा तो वे संग्रहित करते ही हैं, ज्ञान जी जो व्याख्यान-वक्तव्य आदि देते हैं, उन्हें भी संग्रहित करने के लिए छटपटाते रहते हैं। ज्ञान जी जो अपनी खास लिखावट में नोट्स वगै़रह बनाते हैं, व्याख्यान हो जाने के बाद, उन्हें पाने की खातिर मनोहर बिल्लौरे उनके आसपास मंडराते रहते हैं। ज्ञान जी उन्हें देखते ही वे काग़ज़ात उन्हें सौंप देते हैं। न सौंपें तो दूसरे दिन उनके घर जाकर वे बलात् ले आते हैं। लाकर फाइल में लगा नहीं देते, उसे टाइप करते हैं और अपने कम्प्यूटर पर बने अलग-अलग फोल्डरों में से उपयुक्त फोल्डर में रखते जाते हैं। एक बात और बता दूँ, जैसे डॉक्टर की लिखावट को कैमिस्ट ही पढ़ सकता है, उसी तरह ज्ञानरंजन की लिखावट को पूरी तरह से केवल मनोहर बिल्लौरे ही पढ़ सकते हैं। 1992 में प्रकाशित मेरे कथा संग्रह ‘बेगम बिन बादशाह ’ के लिए ज्ञानरंजन जी ने ब्लर्व लिखा था, मैं उसे पढ़ते हुए कई जगहों पर अटक गया था, तब बिल्लौरे जी ने ही उसे डिकोड किया था।
ज्ञानजी की सामग्री का उपयोग कैसे होना चाहिए, इस पर भी वे सोच-विचार करते रहते हें। ज्ञान जी के पास भी जब कहीं से कोई पूछताछ या मांग आती है, तो वे उसे बिल्लौरे जी की तरफ बढ़ा देते हैं। अभी पिछले साल एक किताब आयी है, ‘अमरूद की खुशबू ।’ उसमें ज्ञानरंजन जी के इधर-उधर छपे-कहे लेख-व्याख्यान हैं। वह किताब नहीं आ सकती थी, यदि बिल्लौरे जी ने उसकी सामग्री को बचा-सम्हालकर न रखा होता।
दो साल पहले ज्ञानरंजन जी की एक कहानी ‘मृत्यु’ उनके हाथ लगी थी। वह बहुत साल पहले कभी छपी थी और अब तक लगभग अदृश्य हो चुकी थी।बिल्लौरे जी मेरे पास आए और कहा कि यदि वह कहानी ‘हंस’ जैसी पत्रिका में छप जाए तो नए पाठकों के लिए बहुत उपयोगी होगी। मैंने हंस के संपादक संजय सहाय जी से बात की। उन्होंने कहा, भिजवा दें। बिल्लौरे जी ने भेज दी और वह हंस में प्रकाशित हुई।
वे ज्ञानरंजन जी के छाया-ज्ञानरंजन हो चुके हैं। वे उनके सचिव हैं। उनके कस्टोडियन है। ज्ञान जी और ज्ञानजी का सब उनकी निगरानी में हैं। पत्रों वाली इस किताब का आ पाना उन्होंने ही संभव बनाया है। तो हमें प्रियंवद और नवारुण के साथ मनोहर बिल्लौरे का भी आभार मानना चाहिए।
कथाकार शेखर जोशी के पुत्र संजय जोशी ने नवारुण प्रकाशन आरंभ किया है। इसके पहले वे ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के सबसे सक्रिय केंद्र के रूप में जाने जाते रहे हैं। हमने एक बार ‘पहल गोष्ठी’ की ओर से उन्हें और संजय काक को जबलपुर बुलाया था। नचारुण ने बेहद ख़ूबसूरत तरीके से यह किताब प्रकाशित की है।
- आलमारी में ठसाठस भरी किताबें, आवरण चित्र अवधेश बाजपेई का
जबलपुर निवासी महत्वपूर्ण चित्रकार अवधेश बाजपेई ने आवरण चित्र बनाया है और अपने चित्र में ज्ञानरंजन जी की बैठक को साकार कर दिया है। वहाँ आलमारियाँ हैं। उनमें ठसाठस भरी किताबें है। उसकी एक पट्टी किताबों के बोझ से लफ गई हैं। एक पुराना पंखा और टाइप रायटर है। बहुत से रद्द किए जा चुके काग़ज़ हैं और वह थैला भी है, जो अक्सर ज्ञान जी के कंधे पर रहा करता है। एक कोने में दो बोतलें भी हैं, न जाने काहे की और किसलिए। तो भाई अवधेश के लिए चश्म -ए-बद-दूर।
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नवारुण प्रकाशन
सी-303, जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर 9,
वसुंधरा, ग़ाजियाबाद- 201012 उप्र
पृष्ठ - 387 मूल्य - 580 रुपए
नोट- कृपया अक्षर सत्ता के लिए समाचार/प्रेस विज्ञप्ति 9424755191 पर व्हाट्स एप्प करें।
अक्षर सत्ता का ई-मेल aksharsattajbp@gmail.com है। वेबसाइट-aksharsatta.page
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