प्रेमचंद का क्यों होता है: सुनियोजित बायकॉट ! लेख - सुसंस्कृति परिहार

मुंशी प्रेमचन्द जयंती पर खास तौर पर अक्षर सत्ता के लिए लिखा गया आलेख 

प्रेमचंद का क्यों होता है: सुनियोजित बायकॉट !

                - सुसंस्कृति परिहार 

सुसंस्कृति परिहार 

'मैं मज़दूर हूं एक दिन ना लिखूं तो मुझे रोटी का अधिकार नहीं है।' 

- मुंशी प्रेमचंद 


मुंशी प्रेमचंद का तमाम साहित्य आज़ादी के पूर्व के हिंदुस्तान की उन तमाम सामाजिक, राजनैतिक पीड़ाओं के साथ साथ देश में व्याप्त भाईचारे, सद्भाव और नैतिकताओं का ईमानदारी से लिखा दस्तावेज है। उन्होंने लगातार लिखा है -इसलिए वे ज़ोर देकर कहते हैं 'मैं मज़दूर हूं एक दिन ना लिखूं तो मुझे रोटी का अधिकार नहीं है।' उनका यह कथन उस सच्चाई को प्रदर्शित करता है कि लेखक का दायित्व है कि वह सतत हालातों पर लिखता रहे क्योंकि यह उसका कर्म है और इस लेखन की बदौलत ही रोटी खा पाता है।तो लिखने में कोताही क्यों? निश्चित तौर पर यह लेखकों को स्मरण रखना चाहिए जिनसे लोग सच्चाई सामने लाने की अपेक्षा रखते है उनकी लेखनी थमना नहीं चाहिए।

आज़ कुछ चीज़ें बदल गई है, मसलन लेखक मतलब के लिए सत्ता की चापलूसी में लिख रहा है। राम मंदिर निर्माण भले अभी तक अपूर्ण हो पर अनगिनत लोगों ने रामजी पर कितनी किताबें तैयार कर लीं और वे सरकार के ज़रिए बाजार में पटी पड़ी है। राम जी को लेकर आने तथाकथित हनुमान पर भी साथ साथ पुस्तकें सामने आती जा रही हैं। अखबार पत्र पत्रिकाएं सब बिना रामजी के अधूरे हैं। लेखकों में छपास और सम्मानित होने की हवस इतनी उफान पर है कि वे जल्द से जल्द बड़ा लेखक बनने किताब दर किताब छपाते जा रहे हैं। अब अख़बार मजूरी का पैसा नहीं देते फिर भी लेखकों की तादाद बढ़ती जा रही है। ये वर्तमान सरकार की माया है, उन्हें ऐसे लेखकों की ज़रूरत है।

इसलिए आज प्रेमचंद जैसे जनवादी मज़दूर लेखक में खामियां दिख जाती हैं। कोई कहता है वे अपने लेखन से मुसलमानों का पक्ष ले रहे हैं जो नहीं किया जाना चाहिए तो कुछ लोग उन्हें दलित लोगों का पक्षधर बताकर उन्हें हिन्दू विरोधी बताकर विरोध जताते हैं। 18वीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण लेखक की किताबें जलाते हैं। उन्हें कोर्स से निकाल देते हैं।

  • कौन थे प्रेमचंद 

कौन थे प्रेमचंद आइए जान लेते  हैं वे पत्रकार, लेखक कहानीकार और उपन्यासकार थे। कहा जाता है कि यदि आज़ादी के पूर्व का हिंदुस्तान जानना है तो प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। उन्होंने भरपूर साहित्यिक लेखन किया है। सबसे  बड़ी बात ये है कि उनके लेखन  में समय और काल के हिसाब से परिवर्तन आता रहा है। उन्होंने पहले लिखना आदर्शवाद से शुरू किया किन्तु  उनका आदर्शवाद प्राचीन साहित्य जैसा नहीं  था। उनकी इस तरह की कहानियों में गहरी और सच्ची अनुभूति देखने मिलती है। इन कहानियों के ज़रिए वे अपने पात्रों के चरित्र में सुधार करना चाहते हैं। उन पर यहां गांधीजी के सुधारवादी आंदोलन का बड़ा असर देखने मिलता है। जातिवाद, छुआछूत जैसी सामाजिक वेदनाएं उनके इस दौर के लेखन का मुख्य आधार रही हैं। यहां वे सामंतवादी ताकतों  को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका झुकाव आदर्शवाद से यथार्थवादी हो जाता है, वे इनकी पहचान दलितों को कराते हैं। वे दैनन्दिन की घटनाओं को सामने लाकर विरोध की नई इबारत लिखते हैं।

प्रेमचंद की रचनाओं में जिन गांवों तथा कस्बों की बात मुखर होती है वह अस्सी प्रतिशत जनता की आवाज  गांव में रहनेवाला गोबर, धनिया तथा घीसू, माधव जैसे लोगों को हिन्दी साहित्य के पात्र बनेंगे। इन लोगों की तकलीफ़ के साथ प्रेमचंद सीधे जुड़ते हैं। यह कहना तनिक भी अनुचित न होगा कि यह न सिर्फ गोबर की बल्कि लाखों-करोड़ों शोषितों एवं पीड़ितों की स्थिति थी। इस प्रकार प्रेमचंद शोषितों के एक वर्ग की ताकत में विश्वास रखते थे।  यह कहना शायद गलत ना होगा कि हिन्दी साहित्य में वर्ग संघर्ष की समझ प्रेम चंद के यहां ही जन्म ली।

एक वक्त  ऐसा भी आया जब गांधीवाद से उनका मोहभंग हो गया और वे पक्के प्रेमचंद को मार्क्सवादी बन गए प्रसिद्ध उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के अन्त में सेठ जी के स्वर में प्रेमचंद बोलते हैं- ‘जन आंदोलन को चलाकर और समझौतों को बिना सोचे समझे करके …गलती हुई और बहुत बड़ी गलती हुई। सैकड़ों घर बर्बाद हो जाने के सिवा और कोई नतीजा नहीं निकलता है।’  …‘इस प्रकार के आंदोलन में मेरा विश्वास नहीं है। इनमें प्रेम की जगह द्वेष बढ़ता है। जब तक रोग का निदान न होगा उसकी ठीक औषधि न होगी केवल बाहरी टीम-टाम से रोग का नाश न होगा।’  इसी उपन्यास के अंत में अमर से सलीम का यह बयान कि ‘नतीजा यह होगा कि यहीं पड़े रहेंगे और रिआया तबाह होती रहेगी। तुम्हें तो कोई खास तकलीफ नहीं है लेकिन गरीबों पर क्या बीत रही है यह सोचो।’ ये विचार यह सिद्ध करते हैं कि गहरी सूझबूझ और समझ ने उन्हें प्रगतिशील विचारधारा से जोड़ दिया।

  • गरीबों की मात्र एक संस्कृति होती है और वह है रोटी की संस्कृति

उन्होंने दोनों सम्प्रदायों की आलोचना भी की तथा सांस्कृतिक एकता पर बल दिया। प्रेमचंद का मानना था कि दोनों की संस्कृति एक है। दोनों की सामाजिक समस्याएं भी एक ही सी हैं। दोनों के बीच गरीबी एवं अशिक्षा बिना किसी भेदभाव के मौजूद है। दोनों के सामने रोटी की समस्या सामान्य रूप से पाई जाती है। जाहिर है गरीबों की मात्र एक संस्कृति होती है और वह है रोटी की संस्कृति। उन्होंने इस रोटी की संस्कृति को विस्तार दिया।रोटी की जरूरत को सर्वोपरि बताते हुए इसलिए कहा कि मैं भी मज़दूर हूं और जिस दिन कुछ लिख नहीं लेता मुझे रोटी का अधिकार नहीं है।

  • सामंतवादी ताकतें आज तक उनसे ख़फ़ा नज़र आती हैं 

आम आदमी या यूं कहें मज़दूरों की तरह जीवन जीने वाले प्रेमचंद ने जितनी हिम्मत और साहस के साथ अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध लिखा उससे ज़्यादा देश की अंदरूनी सामाजिक अव्यवस्थाओं और कारणों को उजागर करते हुए बेझिझक लिखा जिससे सामंतवादी ताकतें आज तक उनसे ख़फ़ा नज़र आती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उन्होंने गरीबों के शोषण और उनके पाखंड का जनक बनाया। इस बीच फासिस्ट ताकतों ने उन्हें स्त्री विरोधी भी बताने की कोशिश की उसकी वजह प्रेमचंद का अपनी पुत्री कमला को ना पढ़ाना बताया जा रहा है। इन लोगों को उस दौर की उनकी आर्थिक स्थिति पर गौर करना चाहिए। कुल मिलाकर प्रेमचंद देश में व्याप्त अनगिनत सामाजिक बुराईयों से छुटकारा दिलाने,आपसी सद्भाव कायम रखने, जातिवादी सोच और सामंती वा पूंजीवादी ताकतों के शोषण के ख़िलाफ़ लिखे हैं, जिनकी पुनर्स्थापना के लिए आज की सरकार प्रतिबद्ध है। इसलिए देश के महान साहित्यकार प्रेमचंद का बायकॉट करवाती है, किताबें जलवातीं है, उनको पाठ्यक्रम से हटवाती है लेकिन प्रेमचंद कालजयी रचनाकार हैं जब तक धरती पर शोषण रहेगा वे प्रासंगिक रहेंगे। 

  • मुर्दों की तरह ज़िंदा रहने से क्या फायदा?

प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज लगाई "ए लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो मुर्दों की तरह ज़िंदा रहने से क्या फायदा?"

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