साहिबे विकास भी ले रहा सावन का मज़ा : लेख - सुसंस्कृति परिहार




सुसंस्कृति परिहार 

तकरीबन मनभावन सावन माह आधा गुजरने वाला है, जिसका इंतज़ार ना केवल बहनों को रहता है बल्कि इससे ज़्यादा प्रेमी बल्लियों उछलते-कूदते नज़र आते हैं तो कहीं विरहणियां भी इससे प्रभावित होती हैं। सावन की आग होती ही ऐसी है, जिसे बुझाना आसान नहीं होता। इस बार सावन तो अपने साहिब के विकास पर मेहरबान हो गया है। वह विकास पर इतना टपका जा रहा है कि देश विदेश में चर्चित हुआ जा रहा है।

कोरोना से दुख भरे काल में सेंट्रल विस्टा यानि आज का तरोताजा  संसद भवन एक साल पहिले अपने तल में सावन भर कर आनंद दिया। वहीं इस बार शिखर से टपक कर सावन की बुलंदियों का मज़ा बिखेर रहा है। देश में ऐसे विकास का कोई दिव्य स्थल अछूता नहीं है, जहां सावनी झरने झर-झर ना बहे हों। वन्दे भारत ट्रेनों में इस बार सावन ने विकास का अनूठा दर्शन कराया। बादलों के बीच उड़ते हवाई जहाज में सावनी घटाएं बरस पड़ी। बादल भी इस दृश्य से भारत के विकास को देखकर अचंभित हो गए। हवाई अड्डे और रेल्वे स्टेशनों पर तो सावनी बौछार की धूम का अलौकिक आनंद जिसने लिया है, वह इसे नहीं भूल पाएगा। आखिरकार हर जगह इतने छिद्रों का निर्माण विकसित टेक्नोलॉजी से ही संभव हो सकता है। 

साहिबे आलम का यह कार्य अद्वितीय और अनूठा है जिसने मौसमी आनंद जुटाने अठारह घंटे काम किया। सेंट्रल विस्टा का पुनीत कार्य देखने  साहिब जी ने कई दफ़े दौरा किया, तब जब कोरोना के भय से लोग घरों में घुसे थे, तब साहिब इसकी देखरेख करने बिना कोरोना से भयभीत हुए मनोयोग से जाते रहे।उनकी इस देखरेख का ही सुफल है कि संसद में बुंदिया गिर रही हैं, हम सावनी गा रहे हैं।

इतना ही नहीं, उन्होंने बुलंद भारत बनाने का ठेका अपने गुजराती भाईयों को सौंपा। जिन्होंने कुशल व्यापारी की तरह इसे निभाया। महाकाल में गिरते सप्तश्रृषि हों या अयोध्या का राम पथ हो, सबमें सावनी बहार का मज़ा भरपूर मिल रहा है। पुल तो सावन की तरह टपक रहे हैं। अभी तो आधा सावन और पूरा भादों महीना बाकी है। हो सकता है कई जगह और इससे बेहतर नज़ारों के आनंद का इंतजाम हो। अभी तो ये बानगी है जो इतनी मज़ेदार है तो आगे आगे क्या होगा। गरीबों की झोपड़ी की तरह सावन इस बार बड़ी बड़ी जगह टपक कर अपने समाजवादी स्वरुप का आभास करा रहा है। सबका साथ सबका विकास का यह स्वरूप साहिबे आलम ही दिखा सकते हैं।

यकीं मानिए दुनिया में किसी भी छोर पर इतनी बड़ी सोच का कोई साहिबे आलम नज़र नहीं आता। प्रतिपक्ष गाहे-बगाहे जबरदस्ती उन्हें छेड़ने की कोशिश करता रहता है। उसे विकास के इन मानदंडों से सीखना चाहिए जो लोगों को आनंद देने के साथ पुनः निर्माण और रोज़गार की गारंटी देता है। नया काम  कहां से आएगा जब तक सावन हर जगह से नहीं झरेगा। साहिबे आलम हिंद की इस ऊंची सोच का खैर मक़दम कीजिए। छिंद्रान्वेषण करने की ज़रुरत नहीं है। छेद भेद खोलकर कुछ हासिल होने वाला नहीं है इसलिए सावन की रिमझिम, बुंदियों, फुहारों और झरनों का जहां मिले भरपूर आनंद लें। पर ध्यान इस बात का भी रखें । कहीं ये वायनाड जल बहा्व या हियालयीन बाढ़ का स्वरुप धारण ना कर लें। सावधान रहकर सावन का स्वागत करना सीखिए सिर्फ़ मज़े में ही ना डूबे रहिए।

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