आलेख : मिलावटी दौर में जीवन और जीवन मूल्य ख़तरे में ! लेखक - सुसंस्कृति परिहार

                                   



 लेखक - सुसंस्कृति परिहार 

पिछले दिनों तिरुमला तिरुपति देवस्थानम के प्रसादम लड्डू में मिलावट की चर्चाओं की काफ़ी ज़ोर रहा बहसबाज़ियां होती रहीं। सनातन आस्थावान लोगों की भृकुटी भी तनी दिखी किंतु सब मामला कथित शुद्धता ई से संभल गया। ये भाजपा है इसके पास हर समस्या का हल है ।काश,,, इसमें कोई मुल्ला होता तो क्या हल्ला इतनी जल्दी थम जाता। जांच पड़ताल कराने से चंद्रबाबू नायडू को कोई फायदा नहीं मिल सका। उल्टा घी में मिलावट के बावजूद अधिक दाम देने पड़ रहे हैं। सोचिए अधिक दाम देने से कभी मिलावट घट सकती है। बल्कि इसका फायदा अन्य मिलावट खोर उठाने बाध्य हो गए जो तेल जैसी अन्य जिंस की मिलावट करते थे वे भी चर्बीवादी हो गए। हाल ही में एक खबर और आ गई कि सलकनपुर मंदिर के प्रसाद में ऐसी मिलावट को लेकर हंगामा हुआ है। वैसे भी घी में तकरीबन 40-50 साल से मिलावट का इतिहास है। तब तेल, डालडा और आलू मिलाया जाता रहा। बाबा रामदेव जी के चैलैंजिंग गाय के घी की असलियत भी सामने आ चुकी है। मुनाफ़े के लिए ही तो व्यवसाय किया जाता है।
 
इसी बीच दवाओं में मिलावट की पोल पट्टी भी खुल गई केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की जांच में 53 दवाओं के सैंपल फेल हो गए हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारतीय दवाओं का सालाना कारोबार तीन लाख करोड़ रुपए का है। जाहिर है इस कारोबार में बहुत पैसा है यही वजह है कि अधिक मुनाफा कमाने की लालच में नरपिशाचों द्वारा इन दवाओं में मिलावट की जाने लगी हैं और नकली दवाएं भी बनाई जाने लगी हैं। बताया जा रहा है इलेक्टोरल फंड देने वाली कंपनियों ने ना केवल मिलावट का सहारा लिया बल्कि जीवन रक्षक महत्वपूर्ण दवाओं के रेट तिगुने भी कर दिए। आंकड़े  बताते हैं कि नामी फार्मा कंपनियों से भाजपा को 61 करोड़, कांग्रेस को 5 करोड़, सपा को 3 करोड़ और आम आदमी पार्टी को 1 करोड़ रुपए के चंदे ‘चुनावी बॉन्ड’ के जरिए मिले हैं। ‘पैन-डी’ ने भाजपा को 15 करोड़ रुपए का चंदा दिया है, जबकि तेलंगाना की पार्टी ‘बीआरएस’ को भी 20 करोड़ रुपए चंदा दिया गया है। प्रख्यात ‘सन फार्मा कंपनी’ ने भाजपा को 31.5 करोड़ रुपए चंदे में दिए हैं।  

यह भी  बताया जा रहा है इन 53 दवाओं पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध भी लगा दिया है। लेकिन वे अभी भी धड़ल्ले से बिक रही हैं। आखिर तैयार माल बेचना तो ज़रुरी है। वे आगे मान लीजिए बंद भी हो जाएं तो जो सब्सीट्यूट दवाएं आएंगी क्या गारंटी हैं वो मिलावटी नहीं होंगी। यह तो लगता है सरकार अपनी छवि साफ़ सुथरा बनाने बीच बीच में ये सब करती रहती है।

सवाल यह उठता है कि औषधि मानक नियंत्रण संगठन अब तक कुंभकरणीय नींद में क्यों सोया पड़ा था। उसकी नाक के नीचे इतने सालों से ऐसी मिलावटी दवाएं बेची जा रही थी और उसे इनकी जांच की फुरसत ही नहीं मिली थी। अब तो अन्य सभी दवाओं की गुणवत्ता की जांच आवश्यक हो गई है। गौरतलब है कि भारत दवाओं के मामले में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा बाजार है। लेकिन औषधि मानक नियंत्रण संगठन ही अगर जांच में सरकार के साथ मिली-जुली मिलावट के लिए जिम्मेदार हो तो क्या होंगा?

गंभीर बात तो यह है कि आज तमाम खाद्यान्न और उपभोक्ता सामग्री के साथ ही जीवन मूल्यों पर भी मिलावट इतनी हावी है कि आदमियत ही ख़त्म होती नज़र आ रही है।इसका प्रतिरोध किए बिना ना तो हम अपना जीवन बचा पाएंगे और ना ही जीवन मूल्य। मुनाफाखोर को मुआफ करना उनसे सहयोग लेना ही, इस बीमारी  को लाइलाज बना रही है।


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