आलेख : वन मेन वन शो है ,वन नेशन वन इलेक्शन प्लान
खूब चर्चा का सबब बना दिया है, मोदी सरकार ने केबिनेट मीटिंग में वन नेशन वन इलेक्शन प्लान ला कर। इस सरकार का काम ही है, चुनाव के दौरान लोगों को किसी मुद्दे पर उलझा देना। उन्होंने देश भर में एक साथ चुनाव की बात महज़ इसलिए भी की है कि लोग मोदीजी की इस बात को पसंद करते हुए वर्तमान में हो रहे चुनाव में उन्हें अपना वोट देंगे। जो डूबती हुई भाजपा के लिए यह तिनके का सहारा बन जाए।
जबकि इस बिल को लाकर वे देश की भलाई की बात कर रहे हैं इससे देश का बार बार चुनाव का खर्चा बचेगा। तमाम सरकारें पांच साल चुनावी दौरे से बचेंगी तथा निष्ठापूर्वक काम कर सकेगी। सरकारी अमला वा शिक्षक कर्मचारी भी पांच साल में एक बार चुनाव काम लगेंगे। मगर वन मैन ने यह यों नहीं सोचा यदि आपने अल्प बहुमत वाले राज्यों में या लोकसभा में इसे बचाने के लिए विधायक सांसद से खरीदारी की तो चुनाव तो कराने ही होंगे। वैशाखी पर टिकी सरकारें कभी भी गिर सकती है तब क्या चुनाव नहीं होंगे। सबसे बड़ी बात ये कि अभी होने वाले चुनावों में इसकी एक बानगी दिखा सकते थे कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली और बिहार राज्य में चुनाव कराके। यह जब संभव नहीं हो सका तो पूरे देश में एक साथ चुनावों की बात मुंगेरीलाल के सपनों की तरह ही है।
कतिपय लोग तो यह भी कयास लगा रहे हैं मोदीजी का यह विचार बता रहा है कि उनमें चुनाव प्रचार का जो जज्बा था, वो उम्र बढ़ने के साथ शिथिल हो गया है इसलिए वे बैठकर काम करने की बात कर रहे हैं। कुछ लोगों का ख्याल है कि वे उत्तर भारत में संसदीय सीट बढ़ाकर खासकर भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान में दक्षिण के राज्यों की हार से संतुलन बैठाने यह प्लान बना रहे हैं। तो यह मुमकिन नहीं होगा क्योंकि चाहे नवीन सीमांकन का मामला हो या वन नेशन वन इलेक्शन की बात हो इनको कानून बनाने के लिए दोनों सदनों का दो तिहाई बहुमत चाहिए। जो इनके पास नहीं है।
विदित हो, पीएम की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने बुधवार को वन नेशन-वन इलेक्शन कमेटी की सिफारिशें स्वीकार कर ली हैं। देश में एक साथ चुनाव कराए जाने के मुद्दे पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय कमेटी ने ये रिपोर्ट तैयार की है। हालांकि, इसे लेकर विवाद भी शुरू हो गया है । विपक्षी दल, एक देश-एक चुनाव पर सहमत नहीं हैं और कमियां गिना रहे हैं।
एक देश-एक चुनाव से विपक्षी दलों में कई आशंकाएं हैं. एक आशंका यह है कि क्षेत्रीय पार्टियों का प्रभुत्व खतरे में आ जाएगा या खत्म हो जाएंगी क्योंकि लोग देश के मुद्दों को ध्यान में रखकर वोट करेंगे और क्षेत्रीय पार्टियों को इससे नुकसान होगा। क्षेत्रीय मुद्दों की बजाय वोटर राष्ट्रीय मुद्दों को तरजीह दे सकते हैं। विधानसभा चुनाव में भी क्षेत्रीय पार्टियों के सामने संकट हो सकता है, वोटर्स के फोकस में राष्ट्रीय पार्टियां ही रहेंगी। एक साथ चुनाव करवाने से देश के संघीय ढांचे पर सीधा असर पड़ेगा, क्षेत्रीय मुद्दे नज़रअंदाज हो जाएंगे और जनता के प्रति जवाबदेही पर ख़तरा होगा। इसे अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा. ये अलोकतांत्रिक, संघीय ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलग-अलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा। ये व्यवस्था राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगी ।
इस कवायद की वजह साफ है जनता का ध्यान भटकाना तथा विपक्ष को इसके विरोध में खड़ा कर देश विरोधी बताकर अपने को देश हितैषी सिद्ध करना है। लगता है कि यह वन मेन का फ्लाप शो ही साबित होने वाला है। उनकी सभाओं में अब भीड़ जुटाना मुश्किल हो रहा है। इसलिए यह समझिए वे इस तरह के कानून बनाने का भरपूर प्रचार करवा रहे हैं। कोशिश यह है जनता को फिर ठगा जाए और अपनी गिरती छवि को संघ के सामने दुरुस्त कर पेश किया जाए। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का इसे चुनावी शिगूफा कहना उचित ही है।
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