पुस्तकनामा : परसाई को जिंदा बनाये रखने की रचनात्मक पहल लेखक - सुसंस्कृति परिहार


पुस्तक - काल के कपाल पर हस्ताक्षर  

लेखक - राजेन्द्र चन्द्र कांत राय


लेखक - सुसंस्कृति परिहार

‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ शीर्षक से प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की उपन्यास शैली में लिखी गयी जीवनी है। इसे जाने-माने लेखक राजेन्द्र चंद्रकांत राय ने बड़े मनोयोग से लिखा है। यह किताब इसलिए बेहद महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि उसमें सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के जीवन का रेखांकन बहुत ही सरल और प्रवाही शैली में किया गया है। यह छोटी या मझौली किताब नहीं है, बल्कि पूरे 668 पेजों में फैला हुआ एक ऐतिहासिक दस्तावेज ही है। इसे पढ़ना बहुत रोमांचित करता है। किताब अपने साथ बांधे रखती है। इसके कुछ दुखद कथाओं वाले पृष्ठ और परसाई की उन्मुक्तता हमें अनोखा संबल देती है। 
   
परसाई जी की जन्म शती वाले वर्ष में इस किताब का आना भी अपने आप में एक घटना से कम नहीं है। इस पुस्तक की जिस प्यार और मोहब्बत से मांग हो रही है, उसकी वजह है हरिशंकर परसाई जी का निर्भीकता के साथ आम लोगों के जीवन में परिवर्तन लाने की सतत निष्ठा। लेखक ने परसाई जी के जीवन के हर पहलू पर अबाध गति और सहज सरल भाषा में भावपूर्ण लेखन किया है। किताब हमें बताती है कि परसाई, परसाई कैसे बने। 

परसाई जी कमरे में बंद होकर लेखन करते रहने वाले रचनाकार न थे, वे एक एक्टिविस्ट राइटर रहे हैं। वे मजदूरों, मेीनतकशों और शिक्षकों के साथ उनके आंदोलनों में खड़े होते रहे हैं। वे ऐसे लेखक भी न थे, जो अपने समकालीनों पर लिखते समय केवल समकालीन लेखकों पर लिखें, उन्होंने अपनी समकालीनता में रिक्शा चलाने वालों, पान की दुकान वालों, बीड़ी बनाने वालों, होटलों में काम करने वालों को अपना समकालीन मान कर उन पर लिखा है। वे ऐसे लेखक रहे हैं जो कठिन आर्थिक परिस्थितियों में भी नौकरियों को तिलांजलि देकर अपने लेखन को उनसे कहीं ज्यादा जरुरी समझते थे। वे हर नए लिखने वाले को धीरज और गंभीरता से पढ़ने वाले इकलौते लेखक थे। आम तौर पर स्थापित लेखक, अपने समय के या अतीत के बड़े लेखकों को ही पढ़ता है। वे शायद इसलिए युवां-लेखन को पढ़ा करते थे, ताकि उन्हें सार्थक लेखन की ओर मोड़ा जा सके। उन्हें दृष्टि प्राप्त हो। वे प्रगतिकामी धारा से जुड़ कर लेखन करें।  

उन्होंने जिस तरह अखबारों में हर रोज लिखा और पाठकों के पत्रों के निरंतर जवाब देते रहे, वह भी अनूठा और अद्भुत कार्य ही माना जाना चाहिये। इन्हीं कारणों से आम पाठक और आमजन बड़ी तादाद में उनसे जुड़ा। आज भी उनकी रचनाओं में उल्लिखित सूत्र वाक्य खोज खोज कर पढ़ें और उपयोग किए जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। उनकी रचनाएं काल की सीमा में नहीं बंधी रहीं, वे उसे लांघ कर सर्वकालिक हो गयी हैं। उनकी अन्तर्दृष्टि के लोग आज भी कायल हैं।

ये कुछ बातें हैं जिन्होंने परसाई जन्म शताब्दी में उनके पुनर्पाठ को प्रारंभ किया। ठीक इसी समय परसाई से अपने छात्र जीवन से जुड़े कथाकार राजेन्द्र चन्द्रकांत राय ने अपने तकरीबन 50साल के सानिध्य और उनके बचपन की सच्चाइयों को सामने लाकर उन्हें नयी पीढ़ी से जोड़ने का गुरुतर काम किया है।

यह कार्य आसान नहीं था क्योंकि उनका पूरा बचपन जिस तरह परिवार की विपदाओं और विडंबनाओं में लगातार भटकता रहा, उस सबकी तहकीकात करना, खोज-खोज कर उनसे संबंधित लोगों से मिलना, उनसे परसाई जी के जीवन-प्रसंगों को जानना, जान कर उनका सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना, और उनसे संबंधित प्रमाण पत्रों को संजोना कोई धैर्यवान और जीवट वाला व्यक्ति ही कर सकता था। पर राजेंद्र चन्द्रकान्त ने उसे किया। अनेक ऐसे अवसर भी आए, जब वे परेशान भी हुए पर जिस निष्ठा और साहस से उन्होंने तमाम जानकारियां जुटाईं वह अत्यंत दुष्कर कार्य ही था।

पुस्तक पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे परसाई हमारे साथ ही हैं और हम जीवनी लेखक राजेन्द्र चंद्रकांत राय के साथ सीधे उनसे साक्षात् करते हुए, उनके और भी करीबतर होते जाते हैं। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि यदि राय साहब इस पुस्तक को ना लिखते तो हम सब एक जुझारू, संघर्षशील और महान् लेखक के उन समस्त अनछुए पहलुओं से अनभिज्ञ ही रहे आते, जिनका परसाई को महान लेखक बनाने में हाथ रहा है।

इस जीवनीपरक उपन्यास का लेखन न केवल कलात्मक है, बल्कि मनुष्य जीवन और आचरण के सूक्ष्मतम चित्रण से भी भरपूर है, एक प्रसंग देखिये- ‘लड़कों ने आज्ञा का पालन किया। लिखने में जुटे। गुरुजी ने मेज वाले फलों में से एक फल उठाया। दाहिने हाथ की चार अंगुलियों से उसे आहिस्ता से तोड़ा। एक चौकोर टुकड़ा हाथ में आया। उसके अंदर गूदेदार बीजों की श्वेत कतारें प्रकट हुईं। कतारों को देख कर गुरुजी का चेहरा अलौकिक प्रसन्नता से भर गया। उन्होंने उस टुकड़े को मुंह में रखा। दातों ने अपना योगदान किया। गूदे का एक हिस्सा जीभ पर आया। उसे खाने के लिये उन्होंने अपना मुंह धीमी गति से चलाया। जीभ ने स्वाद लिया। दातों की मदद से बीजों को निकाला। गूदा उदरस्थ हुआ और काले बीजों को गुरुजी ने अपने हाथ की हथेली पर उगला और उन्हें हाजिरी रजिस्टर पर रख दिया।’

विद्यार्थी परसाई का चित्रण करते हुए लेखक बताते हैं, ‘हरि ही उनके लीडर। मार्गदर्शक। त्राणदायक। गुरु। उनकी समस्याओं और सवालों को हल करने वाले बंधु। सब कुछ वही थे। हरि ने अपने दोस्तों में अपना ‘सब कुछ’ जी भर कर बांटा। बांटने के स्वभाव से ही अपने लिये भी जीवन के अमोल-तत्वों को हासिल भी किया। मिलनसारिता। नेतृत्व। साहस। सहयोग। समता। सहभागिता। सहायता। जूझने का जज़्बा। लड़ने की हिम्मत। असंभव को संभव में बदल डालने का हौसला। हरि की किशोर वय में, एक ऐसी नींव पड़ रही थी, जिस पर एक बुलंद इमारत की मंजिलों का निर्माण शुरु होना था।’

जब परसाई जी का परिवार प्लेग के भयावह पंजों में फंसा हुआ था, उसका विवरण इस तरह किया गया है, ‘पर उस भूतपूर्व गांव के बीच में एक ऐसा मकान बचा रह गया था, जिसमें अंधकार से लड़ने वाली एक कंदील तब भी जला करती थी। उसकी टिमटिमाती रोशनी, दरवाज़ों की दरारों से निकल कर बाहर के अंधेरे से लड़ने पहुंच जाया करती थी। तब धुंधलाये पीलेपन को अपने डौल में समेटे हुए वह मकान यों लगता था, जैसे काले सागर में एक अकेली नाव हो। अपने बेड़े से छिटकी हुई। तन्हा। जीवन की ध्वनियां भी उन दरारों से झांखती थीं। कुछ दबी-दबी सी बातचीतें। कुछ ठिठकी हुई सी पदचापें। जैसे उस घर में रहने वालों को डर के अजगर ने सबको अपने लपेटे में कस लिया हो।’
 
इस उपन्यास में ऐसे बहुत से स्थल हैं, जहां लेखक ने काव्य ही रच डाला है, ‘किताबें न मिलीं तो दूसरी चीजों को पढ़ने की कोशिश की। रेल्वे स्टेशन को पढ़ना शुरु किया। पेड़ों और पहाड़ों को पढ़ना सीखा। बादलों और आसमान में इबारतें खोजीं। चिड़ियों और कौवों से किस्से सुने। चांद-तारों से बतकही की। उन्हें पढ़ने के लिये, अपनी भाषा ईजाद की। नयी-नयी वर्णमालाएं बनायीं।

रेल्वे स्टेशन को बिन मां का बच्चा पढ़ा। सूना। खाली। हठ-हीन। रोने-मचलने के लिये तरसता हुआ, अपने-आप में सिमटा हुआ। 

पेड़ों को स्कूल पढ़ा। पत्तों को विद्यार्थी। तोतों और मैनाओं को अध्यापक पढ़ा। गिद्ध को हेडमास्टर। फूलों को दीवाली की छुट्टी पढ़ा। फलों को प्रगति-पत्र। 

पहाड़ों को मुसीबत पढ़ा। नदी को जुगत। मछलियों को उपलब्धि पढ़ा। रेत को असफलता। सीपियों को प्रयास पढ़ा। शंख को दोस्त। 

बादलों को संगीत पढ़ा। बारिश को चैन। हवाओं को नृत्य बांचा। बिजली को उम्मीद। अमावस को मृत्यु पढ़ा। पूनो को आनंद। चांद को चाचा बांचा। तारों को परिवार। चांदनी को बुआ पढ़ा। जुगनु को भाई। 

सूरज को पिता बांचा। आसमान को लक्ष्य। धूप को मशक्कत पढ़ा। पसीने को कमाई। उजाले को गुरु पढ़ा। छाया को घर। 

डोरीलाल को मनुष्य पढ़ा। हनुमान सिंह को ठठ्ठा। स्टेशन मास्टर को घुग्घु बांचा। डिपो साहब को लट्ठा। कांटा पढ़ा दोपहरी को। लू को पढ़ा चांटा।’

मुझे लगता है यह उपन्यास नहीं, एक महाकाव्य ही है। जीवन का महाकाव्य। बड़ी बात यह है कि यह मुश्किल भरा काम उस दौर में किया गया जब केंद्र और प्रदेश में परसाई के विचारों की विरोधी सरकार हैं। याद करिए संघ चालित इस सरकार के शाखाओं में पले बढ़े लोगों ने जब उन पर हमला किया था, तब उन्होंने यह लिखकर कि ‘लिखना सार्थक हो गया’ अपनी लेखकीय प्रतिबद्धता से उन सबको हैरत में डाल दिया था। उसके बाद वे ठंडे दिखे पर अंदर अंदर सुलगते रहे। इसीलिए सत्ता पाते ही उनके लेख पाठ्यक्रमों से हटाये जा रहे हैं। 

परसाई थमे नहीं सतत उनका व्यंग्य प्रवाह चलता रहा। वे सत्ता पर चोट करने वाले भी प्रथम लेखक थे। आजादी के दो माह बाद ही ‘पैसे का खेल’ लिखकर उन्होंने भारत सरकार के पूंजीवादी रुख को भांप लिया था। ऐसे जनहितैषी विचारक, लेखक अब नहीं। इसलिए ऐसे महान व्यक्तित्व का दिग्दर्शन ‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ में पढ़ कर मैं अभिभूत हूं। यह पुस्तक लेखकों के लिए सीखने, जीवन जीने और लिखने की कला जानने के लिए अमूल्य निधि ही है।लेखक राजेन्द्र चंद्रकांत राय का दिली आभार। 

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