आलेख : हमारी संस्कृति का पर्याय है हिंदी - लेखक - सुसंस्कृति परिहार


लेखक - सुसंस्कृति परिहार

हिंदी दिवस पर अमूनन हिंदी के विकास की चर्चाओं का ज़ोर रहता है। हिंदी के रचनाकारों का सम्मान होता है ख़ासकर उनका जो अहिंदी भाषी होते हैं और हिंदी में लेखन कार्य करके इसे बढ़ावा देते हैं । देखा जाए तो यह एक महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि देश में अभी भी इसे राष्ट्रभाषा का पूर्ण दर्जा नहीं मिल सका है। वह सहभाषा के रुप में काम करती है | वजह बिल्कुल साफ़ है इस बावत यदि हम सोचें तो पाते हैं कि हिंदी किसी भी प्रांत की या क्षेत्र की भाषा थी ही नहीं इसका निर्माण काल भारतेंदु युग से शुरू हुआ, और धीरे-धीरे इसका विकास हो रहा है। दूसरी बात ये कि देववाणी संस्कृत से यह बहुत दूर की भाषा है जबकि दक्षिण की तमाम प्रांतीय भाषाएं संस्कृत के काफी निकट की हैं। हिंदी का तो इससे बहुत दूर का नाता है जबकि हिंदी उर्दू, फारसी के यह करीब की है।
जब नवीनतम हिंदी भाषा का प्रारंभ हुआ तो उसमें आंचलिक भाषा मसलन अवधी और ब्रज भाषा के शब्द बहुलता से आए। बुंदेली को भी इसमें घुसपैठ का अवसर मिला | कुछ शब्द जस के तस आ गए और कुछ को अल्प संशोधन सहित स्वीकारिता मिली। कारण यही था हिंदी में नए शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी। छायावाद ही वह काल था जब हिंदी का पर्याप्त विकास देखने को मिल जाता है, कविता को सजाने संवारने के लिए नए शब्द गढ़े गए और इसमें पहली बार तत्सम शब्दों का इस्तेमाल हुआ। जनसाधारण के लिए कविता दुरुह होती गई यहां तक कि शब्दों को समझाने की जरूरत पड़ने लगी। महादेवी, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत ने हिंदी में ख़ूब लिखा और हिंदी साहित्य भरपूर हो गया इससे पहले ना हिंदी थी और ना कोई कवि।
लेकिन दूसरी तरफ तत्सम शब्दों से हिंदी बोझिल होती गई क्योंकि तब भी जनमानस में ही नहीं बल्कि प्रशासनिक केन्द्रों में उर्दू, फारसी के शब्द धड़ल्ले से चल रहे थे | फलत: इन भाषाओं के शब्द भी बहुतायत से हिंदी भाषा में स्वीकार्य हो गए जैसे आज अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देने अनेकानेक अंग्रेजी, मंदारिन के शब्द हिन्दी में सम्मान के साथ ले लिए गए हैं | इन तमाम शब्दों के तालमेल से हिंदी का सहज सरल रूप लोकप्रिय हो गया। इस जनप्रिय हिंदी  के आते ही अभिव्यक्ति आसान हुई, जिससे लेखकों कवियों की संख्या भी बढ़नी शुरू हो गई।
  
कहने का आशय यह है कि हिंदी का विकास भारतीय संस्कृति की तरह ही हो रहा है। जैसे हमारी संस्कृति में चारों दिशाओं से आई संस्कृतियों का अद्भुत समागम हुआ है। किसी से हमने परहेज नहीं किया, ठीक उसी तरह हिंदी के निर्माण में प्रांतीय भाषाओं एवं आंचलिक शब्दों के साथ, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, इटालियन, जापानी और मंदारिन के शब्दों को भी आत्मसात कर इसे ना केवल विस्तार दिया बल्कि इसने विदेशियों को भी आकर्षित किया। आज तो विभिन्न मुल्कों से होने वाले व्यापार ने इसे अंगीकार कर भरपूर प्रचार का माध्यम भी बनाया है | यह हिंदी की व्यापकता उसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिला सकने में समर्थ होगी । 
हिंदी का यह उत्तरोत्तर विकास हिन्दी के कतिपय शुद्धता वादियों को नापसंद है। वे इस घालमेल को स्वीकारने ‌‌‌में परहेज करते हैं। वे सिर्फ संस्कृत के तत्सम शब्दों के सिवा हिंदी में आ रहे अन्य शब्दों से घृणा करते हैं। जबकि हम पूर्ववत यह जान ही चुके हैं कि संस्कृत से हिंदी का दूर दूर तक कोई नाता नहीं है। ऐसी हिंदी छायावाद में समृद्ध होकर धराशायी हो गई तब फिर हिंदी ने जन जन में व्याप्त भाषा और बोलियों से जुड़कर विकास की रफ्तार पकड़ी है। साहित्य में भी यह भरपूर उपयोग हो रही है । 
उर्दू का विकास भी ठीक इसी तरह आयातित और देशज शब्दों से हुआ है उर्दू, हिंदी से पहले चलन में  आई इसलिए उसे हिंदी की बड़ी बहन माना जाता है। भारतीय संस्कृति के तमाम रंग उर्दू और हिंदी  साहित्य में मौजूद हैं। हिंदी दिवस पर इसे हिंदू या सनातन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यदि हम भारतीय संस्कृति को अपना मानते हैं  तो संस्कृति की एक धरोहर के रूप में हिंदी को सम्मान देना चाहिए। इसे और विस्तार दें ताकि हिंदी ना केवल राष्टभाषा का दर्जा पाए बल्कि  दुनिया की महत्वपूर्ण भाषा भी बन सके। फिलहाल यह तय है कि हिंदुस्तान की नंबर वन आबादी इसे मंदारिन से आगे पहुंचाएगी। वह स्वाभाविक तौर पर अपनी मिलनसारिता की वजह से निरंतर अविरल गति से प्रवाहमान है। उसे आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं पाएगा।




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