आलेख : क्या न्याय की देवी में बदलाव से: मिल सकेगा सच्चा न्याय लेखक - सुसंस्कृति परिहार


 लेखक - सुसंस्कृति परिहार 

अभी तक तो भाजपा सरकार नामों और स्वरुप में थोड़ा बदलाव कर यश अर्जित कर वोट का इंतजाम करती रही है। गांव मेरा -नाम तेरा। आश्चर्य तो तब हुआ जब माननीय सीजेआई वाय वी चंद्रचूड़ ज़ी ने न्याय देवी को नव स्वरूप में बनवाया और उस स्टैच्यू को सुप्रीम कोर्ट में जजों की लाइब्रेरी में लगाया गया है। चंद्रचूड़ जी का मानना है कि कानून कभी अंधा नहीं होता। वो सबको समान रूप से देखता है। साथ ही देवी के एक हाथ में तलवार नहीं, बल्कि संविधान होगा।

जहां इनमें आंखों की पट्टी की बात करें तो यह समानता (Equality) का प्रतीक है. जिस तरह से ईश्वर सभी को एक रूप में ही देखता है, कोई भेदभाव नहीं करता है, उसी तरह न्याय की देवी भी अपने सामने किसी को बड़ा छोटा नहीं मानती। आंखों पर पट्टी निष्पक्षता का प्रतिनिधित्व करती है। इसका मतलब है कि न्याय बिना किसी पक्षपात के किया जाना चाहिए, धन, शक्ति या सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। “कानून अंधा है” का आदर्श इस आंखों पर पट्टी बंधी महिला में सन्निहित है जो प्रत्येक तर्क को पूरी तरह से तथ्यों और कानून के आधार पर तौलती है। जैसा कि कहावत है "न्याय अंधा होता है", आंखों पर पट्टी बांधने से यह पता चलता है कि वह दिखावे के आधार पर न्याय नहीं करती। इसी तरह, इस मूर्ति (बाएं) जैसे उदाहरणों से पता चलता है कि वह न्याय करने के लिए अपने दिमाग और अपनी सभी इंद्रियों का उपयोग करती है। लेडी जस्टिस, जिसे जस्टिटिया के नाम से भी जाना जाता। जानकारी के लिए बता दें कि न्याय की देवी वास्तव में यूनान की प्राचीन देवी हैं, इन्हें न्याय का प्रतीक कहा जाता है, जिसका नाम जस्टिया है।

1983 में आई फिल्म अंधा कानून आप सभी ने देखी होगी। इस फिल्म में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर एक गाना फिल्माया गया था ये अंधा कानून है। इस गाने को आवाज किशोर कुमार ने दी थी लेकिन, अब भारत का कानून अंधा नहीं है। अब न्याय की देवी की आंखें खुल गई हैं। 

क्या सचमुच इस परिवर्तन से न्याय व्यवस्था बदलेगी। यह परिवर्तन एक हल्की सोच और मिज़ाज का परिचायक है होना तो यह चाहिए था कि अगर न्याय की पट्टी बांधे देवी पर भरोसा नहीं था महिलाओं पर यूं ही हिंदोस्ता में भरोसा करने का रिवाज ही नहीं है इसलिए कथित देवी की जगह बिना मुकुट धारी न्याय देवता को लगाना था। पट्टी के साथ तराजू जिसे आज के बच्चे नहीं जानते हटाना था। तलवार की जगह संविधान रखना ही सब कुछ कह देता है। लगता है भविष्य में अब जब तब इस नई मूर्ति पर विवाद होते रहेंगे। न्याय का प्रतीक जस्टिया से इतनी नफ़रत है तो पूरा नव स्वरूप ही गढ़ना चाहिए था।
बहरहाल, जैसे भारत सरकार के नाम परिवर्तन से यश की ललक पूरी होती रही है। यह यश पाने की चाहत न्याय-व्यवस्था में आना स्वाभाविक तौर पर अच्छे संकेत नहीं देता है।

जहां तक अब तक पिछले दस सालों में हुए न्याय पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं, सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है। नया स्टेच्यू लगाने से लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं होने वाला है। अब तो खुली आंखों से भी भरोसा उठ गया है। वरना बलात्कारियों का सम्मान और गौरी लंकेश के जमानत पर आए हत्यारों का ऐसा स्वागत गुनाह होता। ये तो अंधा न्याय को और पुख्ता ज़मीन मिल गई है। जनता का मन बहलाने के लिए हुज़ूरे आला आपका ख्याल अच्छा है। सीजेआई के घर की गणेश आरती में शरीक साहिबे हिंद के साथ जो हुआ, यह उनका असर है। देखिए आगे आगे और होता है क्या, संविधान अंधे न्याय के शिकार लोगों की रक्षा कर पाता है ?

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