लेखक - विवेक रंजन सिंह, छात्र, जनसंचार विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा |
मुंबई में फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय रहने के दौरान एक बार अवसर मिला था श्याम बेनेगल को दूर से देखने का। किसी फिल्म का प्री शो था, शायद चुप फिल्म का था। श्याम बेनेगल के साथ, गोविंद निहलानी और प्रकाश झा भी थे। मुझे उन तीनों को साथ देखकर अच्छा लग रहा था। श्याम बाबू को सुनने का काफी मन था और मिलने का भी। कुछ महीने पहले उनके ऑफिस में बात भी हुई थी, बिगड़े स्वास्थ्य के चलते समय नहीं मिल पा रहा था और कल ही जब उनके निधन का समाचार मिला तो पैर ठिठक से गए। न मिल पाने का मलाल भी है और दुख भी, मगर सुकून इस बात का है उन्हें दूर से ही सही देख और महसूस कर पाया।
श्याम बाबू नब्बे साल के हो चले थे। पिछले साल मुजीबुर्रहमान के जीवन पर आधारित उनकी फिल्म मुजीब जब आई तब बड़ा आश्चर्य हुआ कि वो इस उम्र में भी अपने सिनेमा के जरिए सामाजिक सरोकारों को जिंदा रखने में लगे हैं।
श्याम बेनेगल को हिंदी सिनेमा आने वाले समय में अपने पितामह के जैसे देखेगा बिल्कुल वैसे जैसे आज दादा साहब फाल्के और सत्यजीत रे को देखता है। उन्होंने आजादी के पहले और बाद के दृश्यों को एक साथ जोड़कर सामाजिक संदर्भों से जुड़े उन पहलुओं को दिखाया, जिसको दिखाने में आज के बहुत कम निर्देशक दिलचस्पी लेते हैं। भारत एक खोज नाम का धारावाहिक उन्होंने उस समय बनाया जब आज के जैसे ऑनलाइन एजुकेशन प्लेटफॉर्म होने की बात ही दूर, संचार की दुनिया में ऐसे उपक्रम सोचे ही नहीं गए थे। भारत एक खोज ने मीडिया के मूल उद्देश्यों सूचना, शिक्षा और मनोरंजन को सार्थक कर दर्शकों के ज्ञान को समृद्ध किया।
श्याम बेनेगल की फिल्में देखते हुए ही लगा कि सिनेमा में असली काम उन्होंने ही किया है। सबसे पहले मंथन देखी थी। अभी हाल में इस फिल्म को पुनर्स्थापित कर कान फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया। हालांकि स्मिता पाटिल और शबाना आजमी के साथ श्याम बाबू अस्सी के दशक में कान फेस्टिवल की यात्रा कर चुके थे।
समाज की समस्याओं, चिंताओं और उनके व्यवहारों को श्याम बेनेगल ने पर्दे पर गंभीरता से उतारा। यथार्थवादी सिनेमा की पकड़ को व्यवसायिक सिनेमा के सामने और मजबूत बनाया। उन्होंने अपने कला और समानांतर फिल्मों के जरिए दर्शक वर्ग को यह मानने पर विवश कर दिया कि सिनेमा का असली मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि मनोरंजन के साथ समाज सुधार, सामाजिक परिवर्तन भी है। उनके कैनवास पर सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ रहे अभिनेता, अभिनेत्रियों को भी उन्होंने ऊंचे फलक पर स्थापित किया। जिसमें शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, ओम पूरी, कुलभूषण खरबंदा आदि कलाकारों का नाम अहम है।
सिनेमा की सार्थकता इस बात से तय होती है कि सिनेमा ने अपने समकालीन समाज को किस हिसाब से प्रदर्शित किया। श्याम बाबू ने सिनेमा को तत्कालीन समाज की आवाज उठाने का एक सशक्त माध्यम चुना। हालांकि यह प्रश्न भी समय समय पर फिल्म समीक्षकों द्वारा उठाया जाता रहा है कि श्याम बेनेगल की फिल्मों के नायकों के हाथ में नायकत्व की कमी रही। वे बस उनकी दीन हीन दशा में और शोषित ही दिखे हैं। यह बात एक हद तक सही मानी जा सकती है। अंकुर, निशांत और मंथन में यह झलक थोड़ी बहुत दिखती है मगर श्याम बेनेगल उसके जरिए समाज के बीच एक सवाल भी छोड़ जाते हैं जो हमेशा हमारे जेहन में उठता रहेगा। भूमिका में एक एक मध्यमवर्गीय महिला की कहानी है तो मंथन में स्मिता पाटिल एक निम्न वर्ग की महिला का किरदार कर रही है ऐसा ही अंकुर में शबाना आजमी को भी देखने को मिलता है। श्याम बाबू ने हर वर्ग समाज से जुड़े तबकों की समस्याओं को अपने फिल्मी पर्दे पर दिखाया। समानांतर सिनेमा को जो रथ सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक ने चलाया था उसको श्याम बाबू ने अस्सी और नब्बे के दशक में अच्छे से हांका।
दलित, दमित, शोषित और वंचित तबके की आवाज़ और उनके यथार्थ को श्याम बेनेगल ने सिनेमा के जरिए उठाने में कोई संकोच नहीं किया। उनके पिता एक फोटोग्राफर थे और उसी ने उनके परिवार का खर्च चलता था। वो खुद एक मध्यमवर्गीय परिवार से आए और सिनेमा में पदार्पण कर निम्न मध्यम वर्ग की आवाज बन गए। उन्होंने व्यावसायिक सिनेमा को घुटने पर ला दिया था हालांकि भारत में बाजारवाद के आगमन ने फिल्मों की दशा और दिशा ही बदल दी फिर भी श्याम बाबू डटे रहे यहां तक कि अपने जीवन के अंतिम समय तक भी।
श्याम बेनेगल का जाना सिनेमा के एक युग का अंत होने जैसा है मगर हमारे पास उनकी फिल्मों का जो अनूठा खजाना है हम उसके बल पर आने वाली शताब्दियों में प्रेरणा पाते रहेंगे। उनकी किसी एक फिल्म को अच्छा कहना बेइमानी है,इसलिए यह कहा जाना चाहिए कि उन्होंने जितनी भी फिल्में बनाई सब अपने आप में एक बड़ा पाठ रहीं।
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