लेखक - मनोहर बिल्लोरे |
जब कहीं किसी कथन के अर्थ को क्षति पहुँचे या उसका अनर्थ होने लगे तो दुख होता है। पीड़ा होती है। कहीं कुछ कसकता सा रहता है कुछ। भाषा की अपनी एक मर्यादा है। यदि उसकी मर्यादा टूटती है और उसमें व्यक्तिगत या सामूहिक स्वार्थ जुड़ते बंधते हैं तो भाषा प्रेमी की आस्था को चोट भी लगती है। कई बातें हैं जो कहते - कहते थक जाता हूँ, कोई नहीं सुनता। सुन भी ले तो अनसुना कर देता है या सुन लेता है तो ध्यान नहीं देता। ध्यान देता है तो धारण नहीं करता या फिर कुतर्कों पर उतर आता है। मेरे पास बस एक यही एक विकल्प है कि जो बातें परेशान करती हों उन्हें लिख दिया जाय। प्रकाशित भी हो जाय तो अच्छा है। कुछ हमदर्द तो मिल ही जायेंगे, जो मेरी पीड़ा समझ सकें। यदि यह न लिखूँ तो मैं बेचैनी मेरी टाँग नहीं छोड़ेगी।
अक्सर सुबह या शाम की सैर करते हुए आप किसी सड़क से आते-जाते हैं और वहाँ कोई चीज़, या कुछ कुछ चीज़़ें या बातें बार-बार खटकती हों तो आप क्या करेंगे...? आना-जाना छोड़ देना कोई बुद्धिमानी नहीं। तो लिखता हूँ उनके बारे में, ताकि उनसे कुछ ध्यान हटे, कुछ मुक्ति तो मिले। कुछ देर के लिए ही सही बेचैनी टाँग छोड़े। पर यदि कुछ ग़लत कहा गया है तो उसे इंगित ज़रूर करें -
यह वह सड़क है जो मध्यप्रदेश में कटनी से जबलपुर आती है। जबलपुर के छोर से पहले तालाब की परिक्रमा कर इसी सड़क से लौटते हुए बाईं ओर सड़क पर कृषि विश्ववविद्याल की बाउण्ड्री वाल पर कुछ वर्षों से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा दिखता है - ‘‘स्वच्छ सर्वेक्षण 20....‘‘ मैं आज तक इस बात का मतलब समझ नहीं पाया। कई लोगों से जानने की कोशिश की, पर कोई संतुष्ट नहीं कर पाया। अब मैं क्या करूँ। किस पर आरोप लगाऊँ, किस पर मामला क़ायम करूँ..? और यह दिखता है। शहर क्या प्रदेश की किसी भी सड़क पर चले जाओ...! बार-बार इस ओर मेरा ध्यान खिंचता है।
बड़ी दिक़्कत है...
थोड़ा और आगे चुंगी नाके की ओर बढ़ो तो उल्टे हाथ पर एक मंदिर है। जिसकी सजावट साल-दर साल आलीशान होती गयी। सड़क थोड़ी बाधित होती है सबेरे शाम, आरती-महाआरती की वजह से। इस मंदिर के माथे पर एक बोर्ड चिपका है, जिस पर लिखा है - ‘प्राचीन, बड़े हनुमान मंदिर’...., मन में खटका होता है - बड़ा मंदिर या बड़े हनुमान। मंदिर प्राचीन या हनुमान प्राचीन। मतलब, कुछ समझ में नहीं आया। हिन्दी कुछ ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं।
बहरहाल, थोड़ा और आगे बढ़े तो दायीं ओर अपनी सीमा में सिमटा और गहरे गेरुई रंग के कारण पहचाना जाता, वरना ओझल बना रहता; उस की बाजू वाली दीवार पर एक बोर्ड कुछ टेढ़ा सा हो गया टंगा है; जिसकी इबारत कुछ इस तरह की है - ‘छोटे हनुमान मंदिर’...! कई लोगों से पूछ चुका हूँ, भाई कि हनुमान जी बड़े-छोटे कैसे...? या मंदिर ही छोटा बड़ा कैसे...? मुझे यह धर्म में बाज़ारवाद के हस्तक्षेप का मामला लगता है। अब तो धर्म-स्थलों के साईन-बोर्ड भी कंपनी प्रायोजित होते हैं होने लगे हैं, जिनके होर्डिंग्स के चौथाई से आधे हिस्से पर मंदिर और बाक़ी पर प्रायोजक कम्पनी का नाम चढ़कर बैठने लगा है।
हो सकता है कुछ लोग इसे पढ़कर कुछ लोग नाराज़ हो अबुद्ध बातें करने लग जायें। गुस्सा हो मुझे धर्मविरोधी कहने लगें। क्या पता…? यह ज़माना कुछ ऐसा ही है। उजड्ड टिड्डे हर तरफ़ मंडराते हैं। उनके पास न तो सकारात्मक भाव हैं, न भाषा; और हैं तो उद्दण्ड और उत्तेजक। उनके पास कोई सार्थक और सटीक जवाब नहीं होता, घूंसा या मुक्का होता है। इनके मनमाफ़िक बातें न कीं तो बवाल उठ सकता है।...! उन्हें सुनने समझने की आदत नहीं। है तो किसी को भी ठेल सकते हैं अपनी विकृत बोली के बलबाहुओं पर।
पर क्या करूँ, ये विशेषण मुझे परेशान करते हैं। मैं इनसे मुक्ति चाहता हूँ। छोटे-बड़े, प्राचीन-नवीन जैसे, ये विशेषण, मुझे परेशान करते हैं…।
बड़ी दिक़्कत है...
एक टिप्पणी भेजें