व्यंग्य : ‘विकास’ हो रहा है...!’
लेखक - मनोहर बिल्लौरे |
अब ‘विकास’ के मायने बदल रहे हैं। धीरे...धीरे...। सड़क - जिनका बनना कभी रुकता नहीं। पुल, ओवर-ब्रिज, अण्डर-ब्रिज - जिनका पता नहीं कब गिर जायें...? मेट्रो, बुलैट, वंदे-भारत, राजधानी और …. - जिनके अधिकतर डिब्बे ख़ाली जाते हैं और आगे-पीछे के दो डिब्बे ठसाठस। खड़ा होने के लिए भी कसरत करना पड़ती है, अधिकतर देशवासियों को। करते रहो। महामूर्तियाँ - जो पता नहीं कब गिर जायें। देवालय, इबादतगाह, प्रार्थना-स्थल ख़ूब बन बदल रहे हैं। धूमधाम भी ख़ूब रहती है। संख्या में भी इज़ाफ़ा हो रहा है। सब भगवान को ढू़ँढ़ रहे हैं, पर वह मिलता ही नहीं। इनमें भीड़ बढ़ाने के करतब भी पूरे नियोजन के साथ होते हैं। प्रतियोगिता है। कौन कितना बड़ा भव्य और महान मूर्त और गतिशील दिखा सकता है। यहाँ सजावट और जुमले हवा में उछाल-उड़ा कर जनसैलाब भी ख़ूब इकट्ठा किया जाता है। अब कहीं भगदड़ मच गई और लोग मर गये तो, गुरुदेव कह देंगे - ‘यह तो होनी है, हो गयी।’ मतलब ऊपर वाले की मर्जी। अब जो हो रहा है, ऊपर वाले की मर्जी से हो रहा है। क़त्ल-बलात्कार और लूट की इज़ाजत तो नहीं देता ऊपर-वाला । पर वे कह देंगे – ‘होहि है वही जो...’ यह याद है रटा हुआ, कण्ठस्थ। और कर्म’ प्रधान विश्व....’ भूल गये। उस पर राख पोत दी।
प्रतिष्ठित कथाकार, लेखक रा. चन्द्रकांत राय का ठगों पर लिखा साहित्य पढ़ा तो पता चला - ठग और पिण्डारियों के घरों में पता नहीं होता था कि वे यह धंधा करते हैं। वे अपने अभियान से पहले देवी की अखण्ड कठोर पूजा करते थे। प्रसाद वितरण भी, जिसे खाने के बाद वह ठग दल के अलावा किसी और के सामने इन अभियानों का ज़िक्र तक नहीं कर सकता था। सब कुछ, वह और लगभग वैसा ही, पूरी आस्था के साथ। देवी को प्रसन्न किये बग़ैर अभियान नहीं। इतनी कठोर कि उनमें लूट करने और पूरी योजना के साथ लोगों का गला घोंटकर कब्र में विधिवत दबाने-दफ़नाने तक का काम पूरी कुशलता से करते थे।
तो ‘विकास’ हो रहा है।
अभी ख़बर मिली कि महाकाल का मंदिर हाईटेक हो गया। इसका मतलब मंदिर में भी आफ़ती लोग पूजा करने जाते हैं। और वह करते हैं या करने की कोशिश करते हैं जो धर्म की दृष्टि से वर्जित है। कुछ ग़लत करें न करें। अब जेबकट यह प्रार्थना करने तो नहीे जायेगा कि पकड़ लिया जाये। अब, जब भगवान की मूर्तियाँ तेज़ हवा में उड़ सकती हैं, तो क्या नहीं हो सकता। तो हाईटेक, कोई भगवान को - माफ़ कीजिए प्राण-प्रतिष्ठित मूर्तियों या उनके नगों-आभूषणों का नुकसान न पहुँचा दे। तो हाईटेक व्यवस्था। और इसका प्रचार-प्रसार भी मीडिया द्वारा।
त्याग की ऐसी तैसी। कौन बाबा, संत-महन्त, गुरू, स्वामी, आचार्य, प्रचारक, योगी... दमकदार चार चकों पर नहीं दौड़ रहा; हवा में नहीं उड़ रहा ? काजू-किसमिस, बादाम, दूध और...चख रहा। सब कुछ उपलब्ध है, विज्ञान का। वैज्ञानिक युग का। पर क्या करें समय कम है इनके पास। और अख़बारों में छपता है कि फलाँ-फलाँ अस्पताल में मरे अपने प्रियजन की लाश कंधे पर या साइकिल पर उठा कर ले जा रहा है। तो हालात ऐसे हैं। क्या किया जाये। इसी तरह हमारे सार्वजनिक संस्थान। स्कूल/अस्पताल खुले हैं, पढ़ाई नहीं होती, डॉक्टर नहीं रहते। अब ये नहीं हैं, अव्यवस्था है तो कॉलेज बंद कर दो। ठेके पर दे दो। बेच दो। प्राईवेट को दे दो। कुछ मॉडल, सीएम राईज़ बना दो। यही हाल अस्पतालों का है। नकल न हो तो हमारे प्रदेश का रिज़ल्ट 20-25 प्रतिशत भी न आये। परीक्षा सेंटर बिकते हैं। पेपर लीक तो होते ही रहते हैं। अब रिजल्ट अच्छा न आये तो सरकार की फ़ज़ीअत। स्कूलों-कॉलेजों.... और उनमें काम करने वालों की मुश्किलें इसके अलावा और भी हैं। फिर परीक्षा घोटालों की भी कमी नहीं। चंद प्रतिभावावानों का सिलेक्शन हो जाए तो पोस्टिंग के लिए आंदोलन करो।
अब भुगतना तो उनको है, जो निचले पायदानों पर हैं। उपेक्षित हैं। जिन्हें नहीं मालूम कि उन्हें किस रास्ते, कहाँ तक जाना है। पांच किलो अनाज मिल रहा है। उसमें ख़ुश हैं। मेरे शहर में पढ़ा लिखा नौजवान, नौजवान 5 से 10 हज़ार की प्राइवेट नौकरी कर रहा है। उस पर काम का दबाव और दुर्व्यवहार इतना कि पूछो मत। इतना उसके ख़ुद के खर्च को बमुश्किल पूजता है। वह शादी कैसे करे। कर ले तो बच्चे कैसा पैदा करे। बच्चा पैदा हो तो उसे कैसे पाले-पोसे। कैसे पढ़ाये, उसकी आधी तनखा तो फीस लील लेगी। यदि उसे पढ़ा लिखा बनाना है। नहीं तो नकलची बनेगा। बिना पढ़ा परीक्षा में बैठेगा तो नक़ल का सहारा लेगा। कितने माता-पिताओं ने बेरोज़गारी दूर करने के लिए अपने युवा बच्चों की दुकानें खुलवाईं, उनमें कुछ तो चले और बहुत से घिसट-घिसट कर चौपट हो गये। जितना किराया दूकान का लगता है। उतना भी वे नहीं कमा पाये। अनुभव भी तो होना चाहिए। नौकरी-पेशा के बच्चे रोज़गार अचानक और एकाएक बिना अनुभव कैसे दूकान चले ? सो पास की जमा-पूंजी भी खलाश। अब पढ़ा लिखा तो दिया, पर नौकरी नहीं। और इससे बड़ी बरबादी क्या होगी।
आयुष्मान कार्ड मिल गया। उसमें ख़ुश हैं। और और सपने हैं उनकी आँखों में। महिलाएँ ख़ुश हैं - उनके खाते में हर महीने कुछ रुपये आ जाते हैं। पति ख़ुश है, इनकी चिकचिक कुछ कम हुई। पर जब बाज़ार जाता है - अब तो बाज़ार ख़ुद ही आ जाता है, आपके दरवाज़े पर - पतियों को पता ही नहीं चलता पत्नी को पन्द्रह सौ मिले और महँगाई दो-ढाई हज़ार बढ़ गई। फिर भी वह ख़ुश है। वह जाने के बारे में नहीं सोचता, बस मिलने की याद रहती है उसे।
मोटर साइकिल पर जो चैन स्नेचिंग और मोबाइल लूटन हो रही है - वे अपराधी क्या चोर-उचक्के हैं...? चोर-उचक्के मोटर साइकलों पर नहीं दौड़ा करते। सड़क के चौराहे पर सिगरेट नहीं फूँकते, नशा नहीं करते। कर रहे हैं। लुक-छिप कर। अपराधों में शामिल हो रहे हैं। किसी दल-दल में धंस-कर घुस-कर झण्डा लहरा-फहरा रहे हैं। यह संकट में है..., वह संकट में है..., परिवार नियोजन को गोली मार दो। हमारे पास ख़ूब समय है। खाली। तो ये करो। मन बहलाओ।
बेरोज़गारी समस्या नहीं है। बीमारी है। गंभीरतम। यह कई बीमारियों को जन्म देने वाली विकराल विषैली समस्या है। अब कोई पढ़ाई लिखाई के बाद 4-5 साल बेरोज़गार रहेगा, वह पढ़ाई भी भूलेगा और अकर्मण्यता का रोग भी उसमें जंग की तरह लग जाएगा। लोहा बाहर से छीजता है। बेरोज़गारी की छीजन बाहर भी होती है, भीतर भी। कई युवा, जो अतिसंवेदनशील हैं, मानसिक रोगी हो जाते हैं। उनमें इन्फीरियोरिटी काम्पलेक्स विकसने लगता है। उन्हें वह आदर सम्मान, जो मिलना चाहिए, नहीं मिलता। न घर में न बाहर। वह संवेदनशील है तो त्रस्त ही नहीं अवसाद ग्रस्त भी होता है। वह दमित होता है।
आजकल इनकी संख्या कुछ अधिक ही बढ़ ही रही है। अब बेरोज़गार है, तो कितना सहेगा। उसका ज़मीर है, जो बार-बार घायल होता है। चोट लगती है, गहरी। लो इसका भी इंतज़ाम है। आनंद मंत्रालय बन गया। जाओ, गाने बजाने, नाच गाने से शांति मिल जाये तो पा लो। इसमें कुछ नहीं लगता। दिल लगना चाहिए, दिमाग़ चाहे चकराता रहे।
‘विकास’ हो रहा है...!’
भस्मासुर को वरदान मिला था, शंकर जी का। जब वह अत्याचार करने लगा तो देवताओं ने गुहार लगाई - प्रभो! रक्षा करो…! शंकर जी ने भस्मासुर को कैसे नष्ट किया, यह सब तो आप सब को मालूम है। क्यों जबरन किस्सा खींचा जाये।
तो क्या विकास का अर्थ यह है, कि हम आग खरीदें, पानी खरीदें, हवा खरीदें। किसी दिन प्रकाश के बिकने की बारी आयेगी - एक घंटे धूप के ...रुपये।
अब यह आप पर है कि नकली नारों में हम कितना विश्वास करें। ‘विकास हो रहा है!’ हम तो उस दिन विश्वास कर लेंगे जिस दिन सरकारें यह बताएँगी कि उन्होंने अपना कितना क़र्ज़ घटाया। बैंकों की ब्याज दर कितनी बढ़ी। एक वक़्त वक़्त लगभग 12 प्रतिशत थी। महंगाई कितनी घटी या कम से कम स्थिर है ? हम एक घर, गांव, एक शहर बचा नहीं पा रहे हैं, और कहते हैं कि हम देश बचाएंगे। अंधे रेवड़़ी बांटेंगे तो चीन्ह-चीन्ह कर।
पता नहीं अब ‘विकास’ का सही मतलब क्या है। ढूँढ रहा हूँ। कहते हैं, हो रहा है। शायद कहीं पगलाया घूमता मिल जाये। आप को मिल जाये तो बताएँ।
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