आलेख : विकास की चपेट में पूरा हिंदुस्तान लेखक - सुसंस्कृति परिहार



लेखक - सुसंस्कृति परिहार 

कौन कौन खों धरियों नाव, कंबल ओढ़ें सबरो गांव।     
यह कहावत कभी बुरी तरह बिगड़े गांव के लिए बुंदेलखंड में कहीं गई थी लेकिन आजकल देश इतनी तेजी से विकास के पायदान चढ़ रहा है कि पूरा हिंदुस्तान आज इसकी चपेट में हैं। देश का कोई भी ऐसा गांव या शहर नहीं है जहां झूठ, लूट और पाखंड का बोलबाला ना हो। जित देखूं तित एक जैसा हाल है। इन तमाम खामियों के बावजूद जो बड़ा और तगड़ा झटका देश को लगा है वो है अंधविश्वास और दूसरे धर्म से नफ़रत का है। जबकि देश में शिक्षित लोगों का प्रतिशत बढ़ा है। ताज्जुब इस बात का है यह समुदाय भी जैसी चले बयार पीठ तब तैसी कीजे के अनुरुप चलता हुआ देश को बर्बाद करने उतारू है।

न्यायालयों, जिस पर आम लोग सर्वाधिक विश्वास करते थे वह आज संघ का मुखापेक्षी है। उसने रंजन गोगोई और चंद्रचूड़ जैसे सीजेआई के ज़रिए बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखकर जो फैसले निर्णीत किए हैं, वह कानून की अवज्ञा है। अब तो खुले आम विश्व हिंदू परिषद के बेनर तले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जज शेखर यादव जी ने मंच पर बहुसंख्यक समुदाय के पक्ष में निर्णय देने की बात कर रहे हैं। चोरी छिपे अभी तक जो होता रहा उसकी आवाज जज साहिब ने मुखर कर दी है अब बचता क्या है? सत्ता के शीर्ष  पर बैठे प्रमुख द्वय को गुजरात नरसंहार मामले में जिस तरह बरी किया था या बाबरी ध्वंस के मामले में मुख्यमंत्री को सांकेतिक एक दिन की सजा सुनाई। यह संघी पहुंच का ही परिणाम है। कह सकते हैं उस समय केंद्र में कांग्रेस सरकार थी किंतु संघ  किस तरह चोरी चोरी हर जगह अपनी पैठ बना चुका था यह कोई नहीं जान पाया। इंदिरा गांधी को सज़ा सुनाने वाला जज भी संघी था। उस दौर में न्यायपालिका पूर्णतः स्वतंत्र थी। उसके फैसले मान्य होते थे। शकोसुबह नहीं की जाती थी।

लेकिन संघवादियों की घुसपैठ ने यहां प्रविष्ट होकर विपक्ष और उनके विरोधी जनों की न्याय मिलने की उम्मीद पर पानी फेर दिया।

व्यवस्थापिका तो पहले से विपक्ष को कुचलने तरह-तरह के हथकंडे अपनाती रही है। ईडी, सीबीआई वगैरह उन्हें फंसाने के फलसफा पर उनकी राह इतनी जटिल कर देते हैं कि वे भाजपा शरणम् गच्छामि होने के साथ साथ अपने पूर्व साथियों पर जहर उगलने का काम कर सत्ता का अंग बना लिए जाते हैं। अफ़सोस तो इस बात का है कि जनता द्वारा बनाई राज्य सरकारों को इन्हीं घृणित हथकंडों से गिरा दिया गया। तो कहीं ईवीएम का खेला सुनियोजित ढंग से हुआ। उसे देश में व्याप्त मंहगाई, बेरोजगारी और अवाम  की परेशानियों से कोई मतलब नहीं। उसका काम हिंदु मुस्लिम यानि मंदिर मस्जिद करना, दलित और पिछड़ी जातियों के बीच रेवड़ियां बांटना तथा विपक्ष के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करना है। आजकल तो विपक्ष के संयुक्त गठबंधन इंडिया को तोड़ने का कुचक्र भी चल रहा है। संसद में विपक्ष की आवाज को दबाना और अडानी जैसे लुटेरे और  अमरीका में रिश्वत- खोरी में  बदनाम के मुद्दे पर चर्चा नहीं होने देना जेपीसी की मांग नहीं मानना। यहां तक कि केबिनेट मंत्रियों को स्वतंत्रतापूर्वक  काम ना करने देना। अन्नदाता किसान को पिछले कई वर्षों से दिल्ली से दूर रखना उनके साथ आतताईयों की तरह व्यवहार करना। महिलाओं को काम देने की बजाय कुछ रुपए देकर फुसलाकर वोट लेने का उपक्रम, निंदनीय है। संविधान के अनुरुप काम नहीं करना तथा आम जन के आंदोलन जैसे मौलिक अधिकारों का हनन करना। ये सारी गतिविधियां संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध हैं।

आईए, अब देखें कार्यपालिका के आचरण को जिनमें आज तकरीबन 90 प्रतिशत कर्मचारी सत्ताधारी संघीय नेताओं की चाटुकारिता में लगे हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई धूल चाट रही है। स्वविवेक मर चुका है। वे ऊपर का आदेश मिलते ही गलत कार्य करने में संकोच नहीं करते। कुछ तो दहशत में संघीय परम्पराओं से भय खाते हैं तो कुछ जी हुजूरी में अपनी तरक्की के सपने देखते हैं। जो चंद ईमानदार हैं उनके ऊपर इनकी स्थानांतरण की तलवार लटकती रहती है।इस बीच भ्रष्टाचार उच्च अधिकारियों के साथ साथ चौकीदार तक पहुंच गया है। इसलिए, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे सरकारी क्षेत्रों को ग्रहण लगा हुआ।

जहां तक स्वतंत्र जांच एजेंसियों और चुनाव आयोग का सवाल है, उनकी गतत गतिविधियों की चर्चा अक्सर होती रहती है।

प्रजातंत्र के इन तीन खंभों के बाद जो चौथा खंभा है उसमें  प्रेस, पत्रकारिता लेखकों और कवियों के साथ कला-संस्कृति से जुड़े लोगों को स्थान प्राप्त है। किंतु मीडिया जिस तरह गोदी मीडिया में तब्दील हुई।उसकी वजह से आम लोगों का विश्वास बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ है इसलिए आजकल यूट्यूबर बड़ी संख्या में बढ़े हैं। जब देश में एक व्यक्ति ही अनेक चैनलों का मालिक हो वह भी सरकार का दत्तक पुत्र हो तो यह चौथा खंभा कैसे निष्पक्ष होकर काम कर सकता है ? आप जानते हैं आज भी आकाशवाणी और दूरदर्शन पर आने वाली खबरों को सत्य मान लेते हैं जबकि उन सिर्फ सरकार की तारीफ़ की खबरें होती हैं। समझदार लोग अब ना तो अखबार पर भरोसा करते हैं ना इन तमाम चैनलों पर। बड़ी संख्या में कवि लेखक, संस्कृति कर्मी सम्मान और पुरस्कार के जाल में फंसकर प्रशस्तिगान में लगे हैं।

कुल मिलाकर यह देश दुर्दशा की कगार पर है। बहुसंख्यक  लोगों का ज़मीर मर चुका है। चहुंओर अराजकता है। ईमानदार लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है फिर भी कुछ ज़िंदादिल लोग इस बुरे वक्त को बदलने संघर्षरत हैं और रहेंगे। भले कितना ही वक्त लग जाए, अंधेरा छटेगा।

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