लेखक - मनोहर बिल्लौरे |
बचपन में बहुरूपिये बहुत देखे घर-घर आते, जाते, आँगन नहीं चढ़ते थे। कभी डाकिया, कभी सिपाही, इंस्पेक्टर, कभी डाॅक्टर और कभी साधु-सन्यासी-संत, कभी नेता, .... का भेष धरे। हम पहचान लेते कि यह असली नहीं है। क्योंकि हम में वर्दियाँ और हुलिया और कहे गये की ध्वनि में मौजूद कमज़ोरी पढ़ने का हुनर विकसित होने लगा था। भाव-भंगिमाएँ भी उनकी असलियत का पर्दाफ़ाश कर देतीं। हम मुस्कराते, मुँह छिपा हँसते-ठिठोली करते। हमें अपनी समझ पर अंदर कहीं गर्व का अनुभव सा भी होता।
माँ, समझकर अंदर जाती आटा, अनाज या कुछ सिक्के लाकर उसे देती। कुछ पुराने कपड़े भी ले लेने का आग्रह करती।
उसके विनम्र हाथ जु़ड़ते। कृतज्ञता उसके चेहरे और समूचे शरीर से टपकती। संतोष की रेखाएँ माँ के चेहरे पर चहलक़दमी करने लगतीं। वह चला जाता किसी और अगले घर की ओर। किसी किसी शक्की घर में उसे चोरी चकारी करने वाला समझ दुर्वचन और फटकार भी मिलती तो उसका चेहरा और दयार्द्र हो जाता। एक मायूस प्रतिक्रिया के साथ वह आगे बढ़ जाता। कभी विरोधी प्रतिक्रिया होते नहीं देखी।
अब समय बदल गया है। समय के साथ अब बहुरूपये भी बदल गये हैं। वे अब रूप नहीं, रंग बदलते हैं। घर-घर नहीं घूमते, अब घर-घर ख़ुद फिरकी लेता उनकी परिक्रमा करता है। चुस्त-दुरुस्त विविध वेष-भूषाभूषणों से सज्जित वेे हर जगह मिल जाते हैं। पर्चों, पोस्टरों-बैनरों, फ्लैक्सों, अख़बारों, रिसालों, किताबों में बिल्कुल वास्तविक की तरह चिपके। उनके चेहरे से अब बेबसी, दया, विनम्रता, कृतज्ञता नहीं टपकती। चेहरे गमक, दमक, धमक से आलूदा तेज़ से उनकी पहचान और पुख़्ता हो जाती है। अभिनय क्षमता में पूरी तरह दक्ष। उन्हें अब बच्चे तो क्या, उनके बाप-दादे, माँ, नानियाँ तक नहीं पहचान पातीं। घर उनके सामने नतगात होते हैं। उनके भव्य आहातों में उनका इंतज़ार करते हैं। बातों को बड़े ध्यान और श्रद्धा से सुनते हैं। गुण-प्रशंसा और प्रसार-प्रचार करते हैं। ख़ुद विनम्र, दयनीय और भाव विभोर होते हैं कि उन्होंने उनकी बात सुनी। उन्हें नाम लेकर पुकारा। वे उनके अपने हैं। वे गैस भी छोड़ दें तो कुछ लोग उसके स्वर में भी संगीत का अनुभव करते हैं।
अब रेवड़ियों का प्रसाद है उनके पास, जिसे पूरी उदारता से बांटने में लगे हैं वे। इतने उदार कि क़र्ज़ पर क़र्ज़ लेकर वे बाँट रहे हैं। दूसरों से समाज संस्कार, संस्कृति, क़ौम के लिए त्याग की बात करते थकते नहीं, और ख़ुद दोनों बाहों से बटोरने में मुसलसल मुब्तला रहेंगे। जिस बात के लिए दूसरों को बरजेंगे, उसी में वे डुबकियों पर डुबकियाँ लगायेंगे। सेवा का मेवा लीलेगें, गुटकेंगे।
पहले बहुरूपिये घरों के सामने झुकते थे। अब घर उनके सामने झुकते हैं।
आपने भी देखें होंगे। न देखे हों तो किसी सभा-समारोह, सम्मिलन, मेले, किसी बड़े खेल, तमाशे में चले जाइये। बस थोड़ा पटर-पटर करना आना चाहिए। आप उनसे रूबरू हो सकते हैं। उनकी भीड़ बढ़ाने की जितनी आपकी कूबत होगी, उतने ही आप उनके निकट, निकटतर होते जायेंगे।
आपको अपने अगले जनम की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। कर्मों के फल आपको इसी जनम में मिलने लगेंगे।
बहुरूपिये अब रूप नहीं बदलते। रंग बदलते हैं। बस एक निश्चित भूमिका में ढल कर और और अपने अभिनय को पुख्ता करते जाते हैं। अपने आसपास न सही कुछ ही दूर, बस थोड़ा कष्ट करना पड़ेगा मिल जायेंगे। तैयार होकर जाइये। ताकि आपका प्रभाव सकारात्मक पड़े।
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