लेखक - मनोहर बिल्लौरे |
राम-आसरे उनका पूरा नाम था। पर उन्हें सब आर-ए कहते। यही उन्हें पसंद भी था। शैक्षणिक रिकार्ड में भी अपने पिता द्वारा पाठशाला में लिखवाया नाम, उच्च शिक्षा पार करते-करते, उन्होंने कचहरी की मदद से उन्होंने बदलवा लिया था। बड़ी आस्था और विश्वास से पंडित पिता द्वारा रखे इस नाम को कोई अगर अनायास उच्चार दे, तो उनके चेहरे पर कुछ अप्रिय सी लक़ीरें सायास उभरने लगतीं।
एक दिन वे कुछ अन्यमनस्क से थे। किसी सोच में डूबे। मैंने कड़क चाय का आदेश दिया और उनके लिए तमाखू का गुटका पकड़ा दिया। वे कुछ सामान्य हुए तो मैंने पूछा - ‘‘क्या बात है भाई आर-ए भाई, अनमने से क्यों हो, आज चेहरे से ओज नहीं टपक रहा। कोई दिक़्क़त, परेशानी...?
- ‘अरे कुछ नहीं। पता नहीं लोग मेरी बात समझते क्यों नहीं। और उलजुलूल बातें करने लगते हैं। मेरी बात का जवाब तो उनके पास हैं नहीं। बस अपनी ऐंठ, खीझ, कड़वाहट और बकवाद मुझ पर उड़ेलने तत्पर हो जाते हैं। भाई, मुझे जो सही लगता है, कहता हूँ। कहीं छपने-छपाने में तो बड़ी झंझट है, खर्चे के साथ समय भी जाया होता है। सो सोशल मीडिया पर अपनी बात कह देता हूँ। और इसकी स्वाधीनता मुझे है।’ वे बोले।
- ‘अरे असल बात बताओ, हुआ क्या...? लम्बी भूमिका मत खींचो।’
- ‘अरे कुछ नहीं, मैंने अपने मन की बात एफ-बी पर क्या कह दी। कई अपने ही लोग मुझ पर हमलावर हो गये। मेरी बात को समझे बिना। नाराज़ हो गये। कोई ऐंठता है। कोई ‘बामपंथी’ लिख देता है। कोई आंखें तरेरता है। कोई गालीनुमा भाषा इस्तेमाल कर दोगला कहते हुए कन्वर्ट हो जाने की सलाह देता है। बस मेरे जवाबों पर सवाल हैं, भौंथरे, कुंद से। लांछन भरे। मज़ाक उड़ाते। कोई शालीनता वहां नहीं। कोई कोमल सहिष्णुता वहाँ नहीं मिलती। बस उग्रता सिक्त, दंभ भरी सलाहें, मशवरे - धमकियाँ…। बस यही और कुछ नहीं। उन्होंने सिर पीछा कर, पाउच गुटका मुँह में उड़ेलते हुए कहा।
क्या पोस्ट थी, संक्षेप में बताना। पूरी मत पढ़वा देना। यार, बस सार।’ मैंने चेहरा ताकते हुए पूछा।
- ‘अरे मैंने एक महायोजन पर टिप्पणी कर दी थी कि पावन, पवित्र जगह पर भीड़ को ज़ोर-शोर से शामिल होने के लिए उकसाना, ठीक नहीं। इससे हमारे जीवनदायी संसाधन बुरी तरह हताहत होते हैं। उनमें भीड़ से उपजी गंदगी, मिलती है। वे और उनमे रहने वाले जीवों पर इसका विपरीत असर पड़ता है। दुर्घटनाओं की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। अभी कुछ दिन पहले एक सम्मिलन में सवा सौ आदमी काल के जबड़े ने चबा लिये। मुझ पर अपशब्दों के हमले शुरू हैं। कोई कहीं से भी उचटकर चेतावनी दे जाता है। समझा जाता है, कि जो हो रहा वह सही है। सच है। मनुष्य के कल्याण के लिए है।’ आर-ए के स्वर में अधीरता की मिलावट थी।
- ‘क्या तुम सचमुच नास्तिक हो, जैसा कि लोग कहते हैं…! तुम्हारी ऊपर वाले पर आस्था नहीं?’
- क्या हूँ, सुनने वाले जब अंधे ही नहीं बहरे भी हों। अरे भाई, मैं आस्थावान हूँ। धर्म में भी विश्वास है, यदि वह वास्तव में कल्याणकारी हो। पाखण्ड विपक्ष है, मेरा। अपने वेद-शास्त्रों की तरह कण कण, अणुओं-परमाणुओं तक में शक्ति की, ऊर्जा की उपस्थित मानता हूँ मैं तो। देखता भी मैं तो। उसका आदर-सम्मान करता हूँ। रचनाकार और उसकी रचनात्मक पर, सत्य और प्रेम पर मेरा पूरा भरोसा और आस्था है। उन्हें नष्ट होते देखना मेरे लिए असह्य है। यही बेचैनी में लिखकर अपनी बेचैनी दूर कर पाता हूँ।’ आर-ए को चाय की और तलब उठी। आर्डर देकर कहने लगे - ‘वेदों ने तो प्रकृति के अंगोंपांगों को ही देवता माना है। उनकी उपासना की है। हवा, पानी, सूरज, पेड़, पहाड़ सभी जल-संरचनाएं - मतलब पंचतत्व और उनके अंग-अवयव - की आराधना भर उन्होंने नहीं की। उनकी सुरक्षा और रक्षा के उपाय भी किये और उन्हें पूरा मान-सम्मान दिया। इतना करना भी लोगों को खलता है, क्या करूं? शालीनता से बताने के सिवाय।
- - ‘आप भी तो कम नहीं। उलझ जाते हैं। ऐसे .... लोगों से उलझना समझदारी नहीं। चुप क्यों नहीं रहते आप। उन्हें समझा ही नहीं सकते आप, जो अपनी सोच को कहीं बंधक रखे हुंए हैं।’ मैंने आर-ए समझाने की कोशिश की और जवाब की मंशा से उनके चेहरे को देखा।
- ‘मैं बड़ा साधु संत (तथाकथित) नहीं। मेरी सहनशीलता कमज़ोर है। अपने मन की उथल-पुथल को व्यक्त न करूँ तो मैं कैसे सोऊँ... चैन से साँस लेते अपनी सामान्य दिनचर्या पूरी करूँ तो कैसे... काम में मन कैसे लगाऊँ...? क्या अवसाद में घिसटते-घिसटते चला जाऊँ। नहीं भाई, मैं अधूरा जीवन नहीं जीना चाहता। इससे अच्छा तो पूरा मरकर किसी की गोद में बैठ जाउं और मौज़ उ़ड़ाऊँ और और भविष्य के लिए नर्क तैयार करूं? नहीं, नहीं… मुझसे यह नहीं होगा।’ आर-ए के चहरे की नसें तन गई थीं।
- ‘तो निपटो। मगर अपना खयाल रखना।’
- अपना ही तो ख़याल रख रहा हूँ। अन्यथा तो मैं भी भोजन और भजन से संतुष्ट हो जाता।
- ऐसे .... लोगों को अनफ्रेण्ड क्यों नहीं कर देते?
- अरे भाई वे भी हमारे ही आसपास के लोग हैं। उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा हक़ है। वे अपनी बात कह सकते हैं। बाक़ी तो ठीक पर मेरे सवालों के जवाब मुझे नहीं मिलते। मुझे जवाबों में भटकाने की कोशिश पूरे ज़ोर शोर से होती मिलती है। बस बुरा सा लगता है। उससे उबरने का प्रयास करता रहता हूँ।
- ‘ठीक कहते हैं,’ मैने कहा। ‘चाय कैसी लगी।’ मैंने पूछा तो बोले -
- बढ़िया, आपसे बात हुई तो मन कुछ हल्का हो गया। मिलते रहिए। कहकर उठते उठते बोले - निराला जी की दो काव्य पंक्तियाँ इस मौक़े सुनते जाइये - कहीं हम इसी ओर तो नहीं जा रहे -
‘अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा’
मिलते हैं फिर। कहकर हम अपने अपने घर की ओर चल पड़े।
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