भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन के साए में समस्तीपुर जिले के छोटे-से गांव पितौंझिया में, ठीक सौ वर्ष पूर्व, एक साधारण नाई परिवार में एक असाधारण व्यक्तित्व ने जन्म लिया—कर्पूरी ठाकुर। उनके नाम पर आज वह गांव "कर्पूरीग्राम" के नाम से विख्यात है। मोदी सरकार द्वारा उन्हें "भारत रत्न" से सम्मानित करने की घोषणा भारतीय राजनीति में सत्यनिष्ठा और सादगी की मिसाल को पुनर्जीवित करने जैसा है।
आचरण में सादगी, विचारों में गहराई
कर्पूरी ठाकुर की सहजता और ईमानदारी की कहानी उनकी वेशभूषा से लेकर जीवनशैली तक झलकती थी। मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए भी वे साधारण धोती-कुर्ता पहनते और रिक्शा से कार्यालय आते-जाते थे। उनके पिता गोकुल ठाकुर ने भी अपने पारंपरिक नाई के पेशे को कभी नहीं छोड़ा। जब लोगों ने उनसे पूछा, तो उन्होंने सहजता से कहा, "मेरा बेटा मुख्यमंत्री हो सकता है, पर मेरे लिए वह अब भी बेरोजगार ही है।"
यहां तक कि जब कर्पूरी ठाकुर से कोई नौकरी के लिए सिफारिश करता, तो वे उसे उस्तरा खरीदने के पैसे देकर अपने पारंपरिक व्यवसाय को अपनाने की सलाह देते। यह उनकी सादगी और समाज के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।
स्वतंत्रता संग्राम से राजनीति तक का सफर
कर्पूरी ठाकुर केवल 17 वर्ष की आयु में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और जेल गए। उनके आदर्श लोकनायक जयप्रकाश नारायण और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया थे। 1952 में बिहार के पहले विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी विधायक यात्रा आरंभ की। आजीवन उन्होंने यह सीट कभी नहीं हारी।
उनकी ईमानदारी और सिद्धांतों का ऐसा प्रभाव था कि मुख्यमंत्री रहते हुए भी न तो उन्होंने अपने परिवार के लिए कोई संपत्ति अर्जित की, और न ही अपने गांव में कोई नया मकान बनवाया।
शिक्षा और सामाजिक सुधारों के नायक
कर्पूरी ठाकुर ने अपने पहले मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान मैट्रिक परीक्षा से अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में हटाने का साहसिक निर्णय लिया। साथ ही, उन्होंने अति पिछड़े वर्गों के लिए 12 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, जिसे "कर्पूरी फार्मूला" के नाम से जाना जाता है।
उनका सामाजिक न्याय का विजन केवल नारे तक सीमित नहीं था; वह इसे नीतिगत निर्णयों में तब्दील करने का साहस रखते थे। उनके विचारों ने भविष्य की राजनीति को आकार दिया और मंडल आयोग के कार्यान्वयन की नींव रखी।
सादगी का अनुपम उदाहरण
1977 में एक कार्यक्रम के दौरान, जब उनकी फटी हुई कुर्ते और पुरानी चप्पलें देखकर किसी नेता ने मजाक किया, तो चंद्रशेखर ने कुर्ता फैलाकर उनके लिए चंदा इकट्ठा किया। इस पैसे को लेकर कर्पूरी ठाकुर ने कहा, "इसे मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर दूंगा। मैं ऐसे ही ठीक हूं।" उनकी यह विनम्रता आज भी प्रेरणा स्रोत है।
राजनीति की नई धारा
बिहार की राजनीति पर उच्च जातियों का प्रभुत्व था। लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़े वर्गों और वंचित समुदायों को एकजुट कर सत्ता का समीकरण बदला। उनके आदर्शों को लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने आगे बढ़ाया।
उनके नेतृत्व में 1967 में बिहार की राजनीति ने नई करवट ली। संयुक्त समाजवादी दल के गठन ने कांग्रेस के एकाधिकार को चुनौती दी।
अंतिम यात्रा और अमिट विरासत
17 फरवरी 1988 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हुआ। वे केवल 64 वर्ष के थे। उनकी मौत ने बिहार की राजनीति में एक युग का अंत कर दिया। लेकिन उनकी विरासत अमर है। उन्होंने "आजादी और रोटी" का नारा दिया, जो आज भी सामाजिक न्याय के संघर्ष में प्रासंगिक है।
कर्पूरी ठाकुर की साधना और सादगी ने उन्हें जननायक बनाया। उनकी नीति और विचारधारा आज भी हर वर्ग को समान अवसर और सम्मान देने की प्रेरणा देती है।
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