वन संरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख: बिना क्षतिपूर्ति उपायों के वन क्षेत्र घटाने पर रोक


नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सोमवार को केंद्र और राज्य सरकारों को बिना उचित क्षतिपूर्ति उपायों के वन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार की कटौती करने से सख्ती से रोक दिया।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवाई और के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ, 2023 के वन संरक्षण कानून में किए गए संशोधनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह की सुनवाई कर रही थी। इस संदर्भ में अदालत ने स्पष्ट किया कि वन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय को बिना समुचित क्षतिपूर्ति के लागू नहीं किया जा सकता।

पीठ ने सख्त लहजे में कहा, "हम किसी भी ऐसे निर्णय की स्वीकृति नहीं देंगे जो वन क्षेत्र में कमी लाए। अगले आदेश तक, केंद्र या कोई भी राज्य सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगी जिससे वन क्षेत्र की मात्रा में ह्रास हो, जब तक कि उपयुक्त क्षतिपूर्ति भूमि उपलब्ध नहीं कराई जाती।"

केंद्र सरकार का आश्वासन

सरकार की ओर से उपस्थित अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने न्यायालय को आश्वस्त किया कि सरकार इस मामले को गंभीरता से ले रही है। उन्होंने यह भी कहा कि चार मार्च को अगली सुनवाई से पहले, स्थिति रिपोर्ट के साथ तीन सप्ताह के भीतर आवेदनों का जवाब प्रस्तुत किया जाएगा।

वनों की कानूनी परिभाषा को सीमित करने का आरोप

संशोधनों को लेकर विवाद इस तथ्य पर केंद्रित है कि वन संरक्षण अधिनियम, 2023 में "वन" की परिभाषा को संकुचित कर दिया गया है। यह परिभाषा केवल उन भूमि को "वन" मानती है जो या तो अधिसूचित की गई हों या सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हों।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि इस बदलाव से लगभग 1.99 लाख वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र संरक्षण सुरक्षा उपायों से बाहर हो सकता है, जिससे व्यापक पर्यावरणीय क्षति का खतरा उत्पन्न हो सकता है।

पूर्व आदेश और न्यायालय की सख्ती

इससे पहले भी, न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश में निर्देश दिया था कि संरक्षित क्षेत्रों के बाहर किसी भी वन भूमि पर चिड़ियाघर या सफारी विकसित करने का प्रस्ताव न्यायालय की पूर्व स्वीकृति के बिना स्वीकार्य नहीं होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे केंद्र सरकार को वन भूमि का विस्तृत विवरण उपलब्ध कराएं, जिसे बाद में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित किया जाएगा।

1996 के ऐतिहासिक फैसले का संदर्भ

खंडपीठ ने टी. एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ मामले में दिए गए 1996 के ऐतिहासिक निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि वनों की परिभाषा में कोई भी बदलाव इस फैसले के अनुरूप ही होना चाहिए।

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 2023 के संशोधनों ने इस परिभाषा को कमजोर कर दिया है, जिससे वन संरक्षण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

संवैधानिक चुनौतियों का सामना कर रहा संशोधन

केंद्र सरकार ने 27 मार्च, 2023 को वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक पेश किया था, लेकिन तब से ही यह संवैधानिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। कई संगठनों और पर्यावरणविदों ने इस विधेयक को निरस्त करने की मांग की है, क्योंकि वे इसे वन संरक्षण के विरुद्ध मानते हैं।

वन्य संरक्षण से संबंधित इस विवादास्पद विषय पर सर्वोच्च न्यायालय की अगली सुनवाई चार मार्च को होगी, जिसमें आगे की दिशा तय होने की संभावना है।

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