सारे कयासों को नज़रंदाज़ करते हुए आखिरकार कथित सनातनी भक्तप्रवर जी प्रयागराज में गंगा तीरे पहुंच ही गए और दिल्ली चुनाव को प्रभावित करने अपनी शाही स्नानी मुद्राओं के साथ गंगा स्नान और इसकी महत्ता पर बोलते हुए अपने को परम हिंदू दिखाने में लगे रहे और चापलूस पेड मीडिया खबर को ले उड़ी।
मौनी अमावस्या के एक रोज पहले उनके मोटा भाई ने सिर्फ गमछा लपेट कर कुछ संतों और पंडितों के मंत्रोच्चार के बीच गंगा के किनारे खड़े होकर यह रस्म अदायगी की थी। वे तो जैन समाज से हैं लेकिन सनातनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए यह ज़रूरी था। ये बात और है उनके चरण गंगा में पड़ने के बाद ही भगदड़ों का कलंकित इतिहास कुंभ में दर्ज हुआ।
लेकिन देश के महान भक्त प्रवर ने ना तो स्नान करते वक्त गमछा लपेटा ना संतों के घेरे में रहे। भगवा रंग की कोट और नीले ढीले ढाले पेंट में उन्होंने सूर्य नमस्कार किया। जबकि पार्श्व में मंत्रोच्चार चलता रहा। उनकी डुबकियां भी अनोखी थीं उनका मुखड़ा और सिर पानी में नहीं डूबा। रुद्राक्ष माला जपते उन्हें काफी देर दिखाया गया। दूर दूसरे तट पर स्नान हेतु आए श्रद्धालुओं को भी इस बीच फोकस किया गया। ताकि उनकी गरिमा का ढोल पीटा जा सके। लोग कह रहे हैं एक रस्सी पकड़े वे कौआ स्नान किए हैं। जिसे मीडिया ने गलती से दिखाकर अच्छा नहीं किया। ये दो तरह से सरकार जी के स्नान देखकर अद्भुत लगा किन्तु यह सच है यह गंगा मां का भक्त अपने को अकेला ही दिखाता रहा है। कोई पास आ जाए उसे हटवा देता है। इस एकाकीपन ने उसे निष्ठुर और निर्मम बना दिया है।
सनातन संस्कृति से उसका कोई लेना देना नहीं है। पूरा ध्यान चुनाव पर ही रहता है फलस्वरूप वह चुनावी मतदान के दिन हीइस तरह के इंवेंट बनाता रहा है। कहा जाता है कि यह उसका 12वां चुनावी इवेंट था। जिनमें 8 में शह मिली और 4 में मात।
इससे पहले 1919 के लोकसभा चुनाव के सातवें चरण के प्रचार अभियान के आखिरी दिन वह कन्याकुमारी की आध्यात्मिक यात्रा पर जाते हैं। पूरे 45 घंटे उसी जगह पर ध्यान करता है, जहां स्वामी विवेकानंद ने मेडिटेशन किया था। वह विवेकानंद राॅक मेमोरियल के ध्यान मंडपम में बैठकर मतदाताओं को रिझाते हैं।
चुनाव प्रचार के बाद इसी तरह केदारनाथ गुफा में भी ध्यान साधना का प्रचार करते हैं। पूरी गोदी मीडिया कुंभ स्नान की तरह इस सबका जी खोलकर प्रचार प्रसार करता है। चुनाव आयोग चुप्पी साधे रहता है, इस साधना और स्नान में दखलंदाजी नहीं करता। वह इसे कतई आचार संहिता का उल्लंघन नहीं मानता। इसलिए यह एक नई तरह की चुनावी प्रचार परम्परा बन चुकी है।
इससे दो तरह से इनकी पार्टी फायदा उठाती है पहला यह कि धर्मप्राण बहुसंख्यक जनता उसमें आस्था के परिणामस्वरूप कमल को सफ़ल बनाती है। दूसरा फायदा ये होता है कि भक्ति और साधना का असर दिखाकर फर्जी मतदान से जीत तय कर ली जाती है जो लोगों को धर्मभीरु बनाने का काम करती है और वे झूठे चमत्कारों के प्रभाव में फंसते चले जाते हैं।
कुल मिलाकर चुनावी पराजय को जय में परिणत करने का यह फ़लसफ़ा एक लोकतांत्रिक देश के लिए चिंता का सबब होना चाहिए तथा ऐसे छद्म राजनैतिक आध्यात्मिक ध्यान स्नान वगैरह पर चुनाव काल, जब तक परिणाम नहीं आ जाते रोक लगाने की ज़रुरत है।
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