इलाहाबाद हाईकोर्ट के विवादित फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की रोक, न्यायिक असंवेदनशीलता पर कड़ी टिप्पणी


नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस विवादास्पद आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि "नाबालिग लड़की के स्तन पकड़ना, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश करना" दुष्कर्म के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की पीठ ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को 'चौंकाने वाला' बताते हुए कड़ी असहमति व्यक्त की

न्यायिक दृष्टिकोण पर उठे गंभीर सवाल

न्यायमूर्ति गवई ने स्पष्ट शब्दों में कहा, "यह एक अत्यंत गंभीर मामला है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश की ओर से असंवेदनशीलता दर्शाई गई है। हमें खेद है कि हमें ऐसे कठोर शब्दों का प्रयोग करना पड़ रहा है, लेकिन यह आवश्यक है।"

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के पैराग्राफ 21, 24 और 26 में की गई टिप्पणियों को कानून के सिद्धांतों के विपरीत बताते हुए उन पर तत्काल रोक लगाने का आदेश दिया। साथ ही, भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और इस मामले से जुड़े पक्षकारों को नोटिस जारी किए गए हैं।

'न्यायिक प्रक्रिया में संवेदनशीलता आवश्यक'

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी फैसले पर गहरी आपत्ति जताते हुए कहा कि "यह निर्णय न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि यह भी दिखाता है कि इस संवेदनशील मामले को उचित तरीके से नहीं संभाला गया।" उन्होंने सुझाव दिया कि हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में आवश्यक कदम उठाने चाहिए

एनजीओ द्वारा संज्ञान में लाया गया मामला

वरिष्ठ अधिवक्ता शोभा गुप्ता, जो एनजीओ ‘वी द वूमन ऑफ इंडिया’ का प्रतिनिधित्व कर रही थीं, ने इस विवादित फैसले को उजागर करते हुए सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखा था, जिसके बाद शीर्ष न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया। इसी प्रकार, ‘जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस’ नामक एक अन्य एनजीओ भी पीड़िता की ओर से मामले में पक्षकार बना।

चार महीने तक सुरक्षित रखने के बाद दिया गया फैसला

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस तथ्य पर भी जोर दिया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला तात्कालिक नहीं था, बल्कि इसे चार महीने तक सुरक्षित रखने के बाद सुनाया गया। इसका अर्थ है कि इस निर्णय पर गहन विचार किया गया था, फिर भी इसमें गंभीर संवेदनहीनता देखी गई।

"कानून के सिद्धांतों के विपरीत और अमानवीय"

शीर्ष न्यायालय ने हाईकोर्ट के न्यायाधीश की टिप्पणियों को पूरी तरह असंवेदनशील और अमानवीय करार देते हुए कहा कि इस प्रकार की व्याख्याएँ न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने इस विवादास्पद फैसले पर तुरंत रोक लगाने की आवश्यकता जताई

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से उपजा विवाद

गौरतलब है कि 17 मार्च 2025 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि इस तरह के कृत्य, प्रथम दृष्टया, यौन अपराध बाल संरक्षण अधिनियम (POCSO) के तहत ‘गंभीर यौन उत्पीड़न’ की श्रेणी में आते हैं, जिसमें अपेक्षाकृत कम सजा का प्रावधान है

न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने यह निर्णय दो आरोपियों पवन और आकाश द्वारा 11 वर्षीय पीड़िता के साथ किए गए कृत्य से संबंधित मामले में सुनाया था। इस फैसले की व्यापक आलोचना हुई और इसे लेकर समाज के विभिन्न वर्गों में तीखी प्रतिक्रिया देखी गई।

सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट संदेश

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में न्यायपालिका की संवेदनशीलता और सामाजिक उत्तरदायित्व को लेकर एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि महिला एवं बाल सुरक्षा से जुड़े मामलों में न्यायिक प्रक्रिया का दृष्टिकोण संवेदनशील और न्यायपूर्ण होना चाहिए

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