किसी भी प्रथा को वैधानिक नियमों से ऊपर नहीं रखा जा सकता: सुप्रीम कोर्ट


"अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू" – शीर्ष अदालत

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी भी प्रथा या परंपरा को वैधानिक नियमों से ऊपर नहीं रखा जा सकता। न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने बुधवार को सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि अधिकार और कर्तव्य परस्पर जुड़े हुए हैं, और अधिवक्ताओं को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी गंभीरता से पालन करना चाहिए।

"अधिवक्ता की उपस्थिति औपचारिक नहीं, प्रभावी होनी चाहिए"

सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि किसी अधिवक्ता के लिए अदालत में उपस्थित होना और बहस करना उसके अधिकारों में शामिल है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि वह पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ कार्यवाही में भाग ले। अदालत ने इस दलील को खारिज कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट में यह परंपरा रही है कि किसी भी मामले में उपस्थित सभी वकीलों की उपस्थिति दर्ज की जाती है

पीठ ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि अदालत केवल किसी प्रथा के आधार पर नियमों को नजरअंदाज करे, खासकर जब सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत अपने नियम बनाता है

"नियमों का पालन करना सभी अधिवक्ताओं और अधिकारियों की जिम्मेदारी"

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने 20 सितंबर, 2024 को 'भगवान सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य' मामले में अदालत द्वारा जारी निर्देश में संशोधन की माँग की थी। उस समय, शीर्ष अदालत ने यह आदेश दिया था कि केवल उन्हीं वकीलों की उपस्थिति दर्ज की जाएगी, जो किसी विशेष मामले की सुनवाई के दौरान अधिकृत रूप से उपस्थित रहेंगे और बहस करेंगे

इस संदर्भ में अदालत ने कहा कि वैधानिक नियमों का पालन करना सभी अधिवक्ताओं और अधिकारियों की जिम्मेदारी है। न्यायालय ने दो टूक कहा कि उच्चतम न्यायालय देश की सर्वोच्च अदालत है, और इसके अधिवक्ताओं एवं अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार ही होनी चाहिए

"कोर्ट परिसर में चैंबर आवंटन मौलिक अधिकार नहीं"

पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि अधिवक्ताओं का यह दावा कि नए निर्देशों से उनके मतदान के अधिकार पर असर पड़ेगा, निराधार है। अदालत ने कहा कि चैंबर आवंटन का कोई मौलिक या वैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह केवल एक सुविधा मात्र है

'गोपाल झा बनाम माननीय सर्वोच्च न्यायालय' (2019) मामले का उल्लेख करते हुए, शीर्ष अदालत ने दोहराया कि किसी भी अधिवक्ता को न्यायालय परिसर में चैंबर आवंटन का कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है। इसी तरह, 'सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम बी. डी. कौशिक' (2011) के मामले में यह स्पष्ट किया गया था कि मतदान करने या चुनाव लड़ने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं बल्कि एक वैधानिक अधिकार है, जो केवल नियमों और विनियमों के अधीन होता है

"न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन आवश्यक"

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन और नियमों का पालन अनिवार्य है। किसी भी अधिवक्ता को सिर्फ औपचारिक रूप से अदालत में उपस्थित होने के आधार पर कार्यवाही के रिकॉर्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का अधिकार नहीं दिया जा सकता

"सुप्रीम कोर्ट के नियमों का पालन सभी पर अनिवार्य"

पीठ ने सुप्रीम कोर्ट नियम, 2013 और 2019 में किए गए संशोधनों का हवाला देते हुए कहा कि अधिवक्ताओं को संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत बनाए गए नियमों का पालन करना अनिवार्य है। अदालत ने स्पष्ट किया कि बार एसोसिएशन के सदस्य इन नियमों से बंधे हैं और उन्हें इसका पालन करना होगा

"कानूनी प्रक्रिया को सुचारू बनाए रखने की दिशा में उठाया गया कदम"

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को न्यायिक अनुशासन और कानूनी प्रक्रिया को सुचारू बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इस निर्णय के बाद, न्यायालय में उपस्थिति और कार्यवाही में भागीदारी से संबंधित नियमों का अधिक प्रभावी रूप से पालन किया जाएगा

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