आलेख : संसाधनों के अंतहीन दोहन से बढ़ रहा धरती का तापमान


22 अप्रैल विश्व धरती दिवस पर विशेष 

पृथ्वी का निर्माण करीब 4.6 अरब साल पहले हुआ था। पृथ्वी पर जीवन का विकास करीब 460 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। परन्तु धरती तो तब से संकट में है, जब से मनुष्य अपना नाम दर्ज करा कर उसका मालिक बन बैठा है। उसने यह मानने से इंकार कर दिया है कि मनुष्य के नाते वह भी प्रकृति का हिस्सा है। मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का साथ और सहयोग ही पृथ्वी को हरा-भरा और खूबसूरत बना सकता है। लेकिन हम सभी इस पूरकता को भूलते जा रहे हैं। मनुष्य के सहयोग से उपभोग की बढ़ती लालसाओं का ही परिणाम है कि जल, जंगल और जमीन की समस्या आज सभी समस्याओं में केंद्रीय समस्या बनकर उभर रही है। पृथ्वी केवल मनुष्य की नहीं है बल्कि इस जगत में व्यापत सभी प्राणियों की है। इन सभी के सहयोग व सहचर्य के कारण पृथ्वी जीवित है। आज व्यक्ति व सामाजिक हितों की टकराहट के कारण पृथ्वी में असंतुलन की स्थितियां पनप रही है। आधुनिक जीवनशैली की प्रवृत्तियों ने प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे स्थिरता में कमी आई है। यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है और इसका समाधान यही है कि हम प्रकृति के साथ ऐसा संबंध स्थापित करें जो उसके सम्मान, संरक्षण एवं संतुलन को बनाए रखे। हमें प्रकृति के साथ शांतिपूर्ण व्यवहार करते हुए ऐसे रहना होगा जैसा कि हम उसका एक साधारण अंश मात्र हैं।


लेखक राजकुमार सिन्हा 
बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ

  • देश ने पिछले तीस वर्षों में 6,68,400 हेक्टेयर जंगल खोया
आधुनिकता के चलते मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है, जिससे कई समस्याएं पैदा हो रही है। वहीं, प्रकृति में रहने से रचनात्मकता बढ़ती है। भारत  की बात करें तो इंग्लैंड स्थित ‘यूटिलिटी बिडर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले तीस वर्षों में 6,68,400 हेक्टेयर जंगल देश ने खो दिया है। वर्ष 1990 से 2020 के बीच वनों की कटाई की दर में भारत दुनिया के दूसरे सबसे बङे देश के रूप में उभरा है। ‘ग्लोबल फारेस्ट वाच’ ने यह भी बताया है कि 2013 से 2023 तक 95 प्रतिशत वनों की कटाई प्राकृतिक वनों में हुई है। जैव-विविधता पर ‘अंतर-सरकारी निकाय’ (आईपीबीईएस) के अनुसार, पृथ्वी की सतह का तीन-चौथाई हिस्सा पहले ही मानव जाति के लालची उपभोग के कारण काफी हद तक बदल चुका है और दो-तिहाई महासागरों का क्षरण हो चुका है। 
  • पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं हिमालय के ग्लेशियर, भारत में गहरा सकता है जल संकट
वेटलैंड इंटरनेशनल’ के अनुसार भारत की करीब 30 प्रतिशत आर्द्रभूमि पिछले तीन दशकों में विलुप्त हो चुकी है। आद्रभूमि (वेटलैंड) हमारा सबसे प्रभावी पारिस्थितिकी तंत्र है। ये कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर तापमान कम करने और प्रदुषण घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बीसवीं सदी के दौरान मानव जनसंख्या में तीन गुना की वृद्धि हुई है और दुनिया का सकल घरेलू उत्पाद बीस गुना बढ़ा। ऐसे विस्तार ने इस ग्रह की पारिस्थितिकी पर लगातार दबाव बढ़ाया। हर जगह जब हम वायुमंडल, समुद्र, जलाशय, जंगल, मिट्टी को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिकी में बहुत तेजी से गिरावट हो रही है। उन्नीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने एक बार कहा था कि "एक आदमी जैसा चाहे जी सकता है। लेकिन वो जो चाहता है वह नहीं चाह सकता है।"  देखा जाए तो व्यक्ति खुद की आंतरिक इच्छाओं के अनुरूप कार्रवाई नहीं करता है, बल्कि उत्पादन का ट्रेडमिल उसे चलाता है,जिस पर हम सबलोग स्थापित हैं और जो पर्यावरण का मुख्य दुश्मन बन गया है। यह ट्रेडमिल उस दिशा में बढ़ती है जो इस ग्रह के बुनियादी पारिस्थितिकी चक्र से उल्टा है। ऐसा लगता है कि पर्यावरण के दृष्टिकोण से हमारे पास उत्पादन के ट्रेडमिल का प्रतिरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।जब ग्लोबल वार्मिंग की दर को धीमा करने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी की बात आती है तो पूंजीपति वर्ग विभाजित हो जाता है। संयुक्त राज्य अमरीका में शासक वर्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अधिक कुशल प्रौद्योगिकी पर विचार करने की बात करने लगता है। जहां तक पेट्रोलियम हितों का सवाल है, तेल की मांग को बढ़ावा देने में उनका निहित स्वार्थ स्पष्ट है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में बाध्यकारी कटौती वाला क्योटो प्रोटोकॉल स्पष्टतः अमरीकी पूंजी और उसकी सरकार जो चाहती थी, उससे कहीं आगे था।जब जलवायु समझौते को खारिज करने का कोई वैचारिक आधार नहीं रहा तो उसे स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सहयोग के लिए किए गए पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर दिया है। हमें ऐसे विकल्पों का अनुसरण करना चाहिए जो मुनाफे की हवस से नहीं बल्कि लोगों की वास्तविक जरूरतों और समाजिक - पारिस्थितिकीय टिकाऊपन की जरूरतों से संचालित हो।
  • कार्बन चक्र प्रक्रियाओं के कारण गर्मी में कहीं अधिक इजाफा हो सकता है
माह मार्च 2025 वैश्विक स्तर पर दूसरा सबसे गर्म मार्च था, जिसमें धरती के सतह पर वायु का औसत तापमान 14.06 डिग्री सेल्सियस था, जो 1991-2020 के औसत से 0.65 डिग्री सेल्सियस अधिक और  पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.60 डिग्री सेल्सियस अधिक था।मार्च 2025 पिछले 21 महीनों में से 20वां महीना था, जिसमें वैश्विक स्तर पर सतह का औसत वायु तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक था। पाॅट्सडेम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पेकट रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया भर में कार्बन चक्र प्रक्रियाओं के कारण इस सहस्राब्दी में पिछले अनुमानों के मुकाबले गर्मी में कहीं अधिक इजाफा हो सकता है। वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डीग्री सेल्सियस से कम पर सीमित रखने के पेरिस समझौते को हासिल करना केवल बहुत कम उत्सर्जन परिदृश्यों के तहत संभव है। 
  • तापमान में वृद्धि के साथ जीडीपी में 40 फीसदी तक कमी संभव 
एक अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ ही सदी के अंत तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब 40 फीसदी तक की कमी आ सकती है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक तापमान में होता इजाफा की तरह से अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुंचा रहा है। दुनिया के बढ़ते तापमान का असर रहा कि 2022 में कृषि पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आई है। 
  • गर्मी से बचने की हमारी कोशिशें उल्टे गर्मी को बढ़ा रहीं 
आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर चेतन सोलंकी के अनुसार जैसे- जैसे तापमान बढ़ता है, हम खुद को ठंडा रखने के लिए अधिक से अधिक फ्रिज, कूलर, एसी, पंखे का इस्तेमाल करते हैं। इसमें उर्जा की खपत होती है। इस उर्जा का अधिकांश हिस्सा जीवाश्म ईंधन, खासकर कोयले को जलाने से आता है जो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीन गैसों का उत्सर्जन करता है। इसलिए गर्मी से बचने की हमारी कोशिशें उल्टे गर्मी को बढ़ा रहा है। पृथ्वी पर तापमान बढ़ने के पीछे मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसें हैं। इन गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, सीएफ़सी और नाइट्रस ऑक्साइड शामिल है। इनके बढ़ने से ग्रीनहाउस का प्रभाव बढ़ता है और पृथ्वी गर्म होती है। नेचर क्लाइमेट चेंज के मुताबिक दुनिया में रोजाना 1 करोड़ 70 लाख मेट्रिक टन कार्बन पैदा हो रही है। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक 2017 में कार्बन उत्सर्जित करने वाले प्रमुख चार देश की हिस्सेदारी चीन (27%), अमेरिका (15%), युरोपीयन युनियन (10%) और भारत (7%) था। कार्बन उत्सर्जन में चार देशों की 59 प्रतिशत है और बाकी देशों की 41 प्रतिशत ही है।
  • पर्यावरण संरक्षण के छोटे-छोटे प्रयास करने की जरूरत 
ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में तापमान बढ़ोतरी, बारिश के पेटर्न में बदलाव,सुखे की स्थिति में बढ़ोतरी, भूजल स्तर का गिरना, ग्लेशियर का पिघलना, तीव्र चक्रवात, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, राज्यों में भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं आदि प्रमुख है। जंगलों को काटना, नदियों को गंदा करना, अवैध खनन कर पहाड़ों का सीना छलनी करने तथा अंधाधुंध पानी के दोहन से वातावरण को प्रदूषित कर हम प्रकृति का अस्तित्व खत्म करने के साथ ही अपने जीवन और आने वाली पीढ़ी के लिए खतरनाक वातावरण बना रहे हैं। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण के छोटे-छोटे प्रयास करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए जैसे जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को कम करना, वनों की कटाई को रोकना, वनीकरण को बढ़ावा देना, विनिर्माण में नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाना, भवन और निर्माण उद्योग में कार्बन को कम करना, समुद्री संरक्षित क्षेत्रों को बढ़ाना, ऑटोमोबाइल का उपयोग सीमित करना और रीसाइक्लिंग को प्रोत्साहित करना, वेटलैंड को संरक्षित करना आदि प्रमुख उपाय हैं।

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