समदर्शी प्रकाशन से प्रकाशित' प्रतिरोध के स्वर' काव्य संग्रह के कवि वरिष्ठ लेखक पत्रकार प्रमोद झा हैं। उनका यह तीसरा काव्य संकलन है। एक पुस्तक हिंदी पत्रकारिता के कतिपय यथार्थ भी उन्होंने लिखी। तकरीबन जीवन के चालीस साल देश के प्रमुख अखबारों में देने के बाद, उन्होंने कविता का रुख किया है। यह तब्दीली भारतीय संवेदनहीन समाज के विभिन्न आयामों में झांकने के बाद उनकी वेदना ने संवेदनशीलता का विस्तार ले लिया और वे एक प्रखर स्वर कविताओं में देकर समाज की लानत मनालत ही नहीं करते बल्कि एक जागरूक व्यक्ति के नाते उस पहलू को आमजन तक पहुंचाने प्रतिबद्ध नज़र आते हैं।
उनके रचना संसार में सबसे तीखा स्वर स्त्री के साथ जन्म से लेकर होने वाले असामान्य व्यवहार का है। जिसके देह की गंध को वे कोई नाम नहीं दे पाते हैं।वे देह गंध की शब्द शून्यता कविता में लिखते हैं -
गंध पर बहुबार/होती रही उन्मुक्त/प्रेमा भिव्यक्ति/किंतु अपनी गंध को/नया सशक्त, प्रभावी/शब्द देने में बहुत विफल रही।
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समीक्षक - सुसंस्कृति परिहार |
यह कविता नए मानक स्थापित करती है। यूं तो स्त्रियों के साथ होते सभी तरह के अत्याचारों से वे पत्रकारिता के दौर में परिचित हो गए थे इसलिए उनकी स्त्री सम्बंधी तमाम कविताओं में असलियत देखी जा सकती है। कविताएं जीवंत हो खुद स्त्री वेदना के दुःख पाठ करती हैं। मगर कवि उन्हें मझधार में नहीं ढकेलता बल्कि उसे मजबूती देता हुआ उसके साथ खड़ा नज़र आता है। वे चुटकी भर सिंदूर में लिखते हैं -
अपनी साहसिकता, सहनशीलता/और मेधा शक्ति का परिचय दें स्त्रियां/देह व्यापार कराने वाले भी यही समाज के खलनायक हैं/कुत्सित मानसिकता/जिसको बराबर तोड़ा जाए।
दूसरी उनकी प्रतिबद्धता आदिवासी समाज के प्रति है जो हमारे पुरखे हैं उनकी सुरक्षा हमारी प्राचीन विरासत के लिए ज़रुरी है। वे आज भी भोले भाले और प्रकृति संरक्षक हैं। संग्रह वृत्ति उनमें नहीं है। उनके साथ चुनाव से लेकर कारपोरेट घरानों द्वारा हो रहे शोषण से वे दुखी हैं और तब आखिरी चीख पत्थर की तथा चीखती है आदिवासी माटी लिखकर अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए। आदिवासियों को सावधान करते हुए वे लिखते हैं -
वन्य संसाधनों का अनवरत दोहन/नहीं तोड़ पाते आदिवासी लोग/मालदार, माफियाओं के पैने दांत।.....लूट,हिंसा वा भ्रष्टाचार/से इतर आदिवासी/स्त्रियों की देह पर गिर रहा है/दरिंदों का कहर।
आदिवासी माटी सिर्फ पीड़ा से चीखती है। वे समझाते हुए लिखते हैं -
ज़िदगी नाटक ही है/नाटकीय पात्र बहाते रहते हैं आंसू/आप यदि सजग हैं तो असली नकली आंसुओं में/फ़र्क करते रहिए।
तीसरा और सर्वाधिक मर्म उनकी उन तमाम रचनाओं में है।जो देश के लोकतांत्रिक शासन पर प्रश्न लगाती है। अभिव्यक्ति पर बढ़ते ख़तरे के बावजूद देश के हालात पर वे तीखा प्रहार करते हैं। बिकाऊ लेखक और मोदी मीडिया के दौर में वे उन तमाम घटनाओं को उल्लेखित करते हैं, जिन्हें लोग जल्द भुला देते हैं। 'आक थू' रचना में वे समवेत रुप से इस व्यवस्था पर हमला करते हैं। खून में नहाया मणिपुर कविता में खुलकर यह कह देते हैं -
बहुसंख्यक घरों में मातम/मुट्ठी भर जागरूक व्यक्तियों के निशाने/पर लुंज पुंज केंद्र सरकार/जालिमाना सिस्टम।/ काले कानूनों का भयावह जंगल।
'राजनैतिक गिरोह' कविता में वर्तमान राजनीति को खूबसूरत अंदाज़ में पेश करते हैं। दलितों पर उनकी रचनाएं काफी प्रभावी है। उनकी रचनाएं समसामयिक यथार्थ बोध को बखूबी परिभाषित करती हैं।
इन सबसे अलहदा वे इन विसंगतियों के खिलाफ हुंकार भरने की बात कहते हैं। 'कहीं से भी हुंकार भरो' कविता में उनके इंकलाबी रुख को देखा जा सकता है। इसी तेवर से वे 'उजाले की आस' लिख पाते हैं। वे लिखते हैं -
गहन अंधेरा है अभी/जहां तुम कदम रखोगे/वहां उजाला हो/उजाले की आस बनी रहती है मन में।
कुल मिलाकर प्रतिरोध के स्वर काव्य संग्रह अपने आप में पूर्ण हैं।वे हर उस बिंदु को समाज से उठाते हैं जो समाज की तरक्की में बाधक हैं। रचनाकार को बधाई। जिन्होंने कड़वी सच्चाई सामने रखने का साहस किया। निश्चित ही उनके प्रतिरोध के स्वर गूंजते रहने चाहिए। शुभकामनाएं।
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