प्रगतिशील साहित्य ‘विज्ञान से प्रेम’ और ‘कला जनता के लिए’ इन दो सिद्धन्तों को मिलाकर चलता है। प्रगतिशील साहित्य जनता की सेवा करने वाले तमाम साम्राज्य-विरोधी और सांमत-विरोधी लेखकों की एकता को दृढ़ करने से विकसित होता है।
‘प्रगतिशील साहित्य किसे कहते है?’ — ‘प्रवाह’, फ़रवरी 1952 में डा० रामविलास शर्मा ने लिखा है । "प्रगतिशील लेखक संघ ने आज के समय में राष्ट्रव्यापी हस्तक्षेपकारी भूमिका से प्रभावकारी विस्तार हासिल किया है। यह संच सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से देश की बहुलतावादी संस्कृति के ऊपर आसन्न खतरे के विरूद्ध जनसंग्राम का आगाज करता है।
दुख इस बात का है कि जो रचनाकार, बुद्धिजीवी वैज्ञानिक सोच के साथ कल अपनी पहचान बना कर रोटियां सेंक महत्वपूर्ण बन गए थे, चुप हैं और अपने को समाज से दूर कर लिया है। वैसे लेखक यश लिप्सा और सुख - स्वार्थ के वशीभूत पुरस्कार के लालची हो गए हैं। जो एक चुनौती बनकर हमारे सामने आई है।
आज जब अभिव्यक्ति के ख़तरे बढ़ते चले जा रहे हैं, आम लोगों की खुशहाली छीनी जा रही हो। अमीरी-गरीबी के बीच फासला बढ़ रहा है, देश अंधधार्मिकता की जकड़न में अपनी ताकत खोता जा रहा हो। पूंजीवादी ताकतों का शिकंजा चारों ओर पंख पसारे चला आ रहा हो। देशों की कथित लोकतांत्रिक सरकार उनके आगे सजदा हों, तब साहित्यकार को इस तरह का लेखन करना है जो आमजन तक पहुंचे और उनकी बंद आंख खोले। आज ऐसी किताबों की ज़रूरत नहीं है जो सिर्फ़ बुद्धि जीवियों के लिए या विदेशों में पढ़ने के लिए हो। उत्कृष्ट साहित्य सृजनकर्ताओं को भी अब दो टूक बात लिखने की ज़रुरत है।
प्रेमचंद तब भी सही थे और आज भी सही हैं,साहित्य राजनीति के आगे राह दिखाने वाला मशाल है। प्रगतिशील लेखक संघ संकटकालीन समय के आयोजनों को गंभीरता से लेता रहा है। आज़ादी के पूर्व लिखा प्रेमचंद का साहित्य हो या आज़ादी के बाद लिखा हरिशंकर परसाई का साहित्य हो। उन्होंने अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाकर विपुल लेखन किया। इन प्रगतिशील लेखकों ने आमजन को जितना प्रेरित किया वैसे लेखक आज नज़र नहीं आते हैं।
आखिर हम क्या कर रहे हैं ? यह ऐसा प्रश्न है जो हमें अपने आप से पूछते रहना होगा। क्योंकि हमारा काम कठिन है। हमें अपने समाज में परजीवी रचनाकार की तरह नहीं रहना है। हमें संघर्षरत लोगों के साथ कदम मिलाकर चलना है। आज हमें जीवन के पक्षधर साहित्य की जरूरत है। जब हम जीवन के पक्षधर होंगे, तभी हमारी रचनाओं का प्रतिबद्ध स्वर मुखरित हो सकता है। जब तक हम पूरे मनुष्य और उसके जीवन के लिए अपने को प्रतिबद्ध नहीं कर लेते हैं, तब तक हमारी कोई रचना सच के नजदीक नहीं हो सकेगी।
स्मरण रखें कि 9 अप्रैल1936 प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना दिवस है। इसे प्रगतिशील साहित्य दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। सन 1936 में लखनऊ में 9- 0 अप्रैल को आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की। इसका अंकुरण लंदन में 7-8 भारतीय छात्रों की टोली, जिसमें मुल्क राज आनंद और सज़्ज़ाद ज़हीर प्रमुख थे, ने कर लिया था। जिसका मूल उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद और फ़ासिज़्म से संस्कृति की रक्षा के लिए, विश्व भर के संस्कृति कर्मियों को लामबंद करना था। इससे पूर्व सन 1934 में रूस में सोवियत संघ तथा 1935 में पेरिस में विश्व लेखक अधिवेशन हुआ जिसने इन छात्रों को प्रेरणा दी ।भारत में इस संगठन के जन्मते ही इसे विदेशी संगठन कहकर प्रतिक्रियावादियों ने विरोध शुरू कर दिया, लेकिन सामाजिक- आर्थिक दृष्टि से साहित्य के क्षेत्र में जो नई सोच उत्पन्न हुई उसमें मज़दूर , किसान के अलावा आम शोषित, दलित, पीड़ित सब शामिल हो गये। जिससे स्वाधीनता आन्दोलन को बल मिला।
वहीं दूसरी ओर प्रेमचंद को रूढ़िवादी लेखकों ने घृणा का प्रचारक एवं ब्राह्मण निंदक घोषित कर दिया मगर हंस, प्रभा एवं रूपाभ जैसी पत्रिकाओं ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। प्रेमचंद के साथ, फ़िराक़, निराला, पंत, महादेवी, बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे हिंदी-उर्दू के प्रतिष्ठित लेखक हो गये। बाद में रांगेय राघव, रामधारी सिंह दिनकर, राहुल सांकृत्यायन, शिवदानसिंह चौहान, नरेंद्र शर्मा, रामकृष्ण बैनीपुरी, नरोत्तम नागर, प्रकाशचंद गुप्ता, भगवतशरण उपाध्याय एवं रामविलास शर्मा जैसे कवि,लेखक, कथाकार,समीक्षक बड़ी संख्या में प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले आ गये। वहीं कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर, पंडित जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, सरोजनी नायडू आदि प्रसिद्ध नेताओं ने प्रगतिशील लेखक संघ का दिल से स्वागत किया।
प्रगतिशील लेखक संघ के बनने के बाद साहित्य का स्वरूप बदला। उर्दू शायरी भी इससे अछूती नहीं रही। वह आशिक- माशूका के दायरे से निकलकर आम जनता की दिक्कतों, उसकी लड़ाई, दुखदर्द को अपने में समेटने लगी तथा पीड़ित, शोषित वर्ग को सजग बनाकर हौसला अफ़ज़ाई करने लगी। कविता के क्षेत्र में भी जबरदस्त परिवर्तन आया। छंदबद्धता की बाधा को निराला ने तोड़ना शुरू किया। भावों की जगह विचारों ने ली। जीवन की सच्चाईयां एवं विरोध के स्वर लेखन में उभरे। अलंकरणों का स्थान विम्बों ने लिया।
प्रगतिशील लेखक संघ के गतिशील होने के बाद जीवन की सच्चाइयां और अनुभूतियां यथार्थ रूप में मुखर होने लगीं। यह बदलाव संपूर्ण देश की भाषाओं में लिखे साहित्य में भी साथ-साथ आया। साहित्य अब विरोध की सार्थक अभिव्यक्ति बन एक आंदोलन के रूप में आ गया था, जिसमें शोषणमुक्त भारत ही मूलतः प्रगतिशील लेखन का स्व्प्न था।
लेकिन आज़ादी के बाद भी जब परिदृश्य नहीं बदला सरकार आम जन की पीड़ा के साथ नज़र नहीं आई, तो सरकार से इन लेखकों का मोहभंग हुआ और तत्कालीन लेखकों ने शासन की रीति-नीति के विरुद्ध लिखना प्रारंभ किया जो उनका दायित्व था। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ, हरिशंकर परसाई से प्रारंभ हुआ यह लेखन एक बार फिर समूचे देश में शुरू किया गया जो वर्तमान में अभी तक जारी है। लेकिन दक्षिण पंथी विचारों वाली सरकार के चलते आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ख़तरे में है। सरकार विरोधी लेखन निशाने पर है। हमारे पांच प्रगतिशील विचारक डॉ. नरेद्र दाभोलकर, कामरेड गोविंद पानसरे, डॉ. एमएम कलबुर्गी और संपादक गौरी लंकेश की जिस तरह हत्या की गई वह ना केवल चिंतनीय है बल्कि प्रगतिशील सोच पर विराम लगाने की साज़िश लगती है।
हालांकि इस समय संसार की प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी शक्तियों में अनवरत यह संग्राम चल रहा है । पूंजीवादी संकट आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों को लीलता जा रहा है। फलस्वरूप साहित्य, कला,दर्शन तथा विज्ञान में भी विकृतियां नज़र आ रही हैं। आज के साहित्य में विशेषकर निराशावादी, प्रतिक्रियावादी, रूढ़िवादी स्वभाव की बाढ़, तरह-तरह के आदर्शवादी मतों का प्रचार, रहस्यवाद के गड़े मुर्दों में पुनः जान डालने की कोशिश तथा वैज्ञानिक मतों को झुठलाने की मुहिम चल रही है। ऐसे हालात में क्या हम मीरा की तरह प्रेम दीवाने बनकर गरल पान करते रहेंगे या तुलसी की तरह 'कोई नृप होहि हमहू का हानि' की रट लगाए रहेंगे ? आज जरूरी है साहित्य को नीतिशास्त्र ना बनाएं, कष्टों का रोना भी ना रोयें बल्कि साहित्य के मानदंडों को ऊंचा करना होगा। जिससे वह समाज की अधिक मूल्यवान सेवा कर सके। हमें अपनी रुचि के अनुसार विषय चयन कर उस पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना होगा ताकि वह जीवन के प्रत्येक विभाग की आलोचना तथा विवेचना कर सके।
प्रेमचंद का मानना है- कि हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो,जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करें ,सुलाये नहीं। वस्तुतः प्रगतिशील लेखक संघ ऐसी व्यवस्था चाहता है, जिसमें मनुष्य दुखी ना हो। समाज में अन्याय, अत्याचार, शोषण ना हो। मनुष्य मुक्त हो, विवेकशील हो, अंधविश्वासों को छोड़कर वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए । हरिशंकर परसाई जी कहते हैं- नारे कितने भी अच्छे हों, बेकार हैं यदि रचना के स्तर पर हम कमजोर पड़ते हैं । हमें बहुत जागृत रहना है। इसलिए बेचैन मानसिकता की जरूरत है। जागृत चेतना बेचैन रहती है।प्रगतिशील लेखक संघ राजनीति और साहित्य की पारस्परिक संबंधों की मान्यता को भी स्वीकार करता है क्योंकि समाज में आधारित व्यवस्था में बदलाव आखिरकार राजनीतिक तरीकों से ही लाना है इसलिए नई कविता के युग प्रवर्तक मुक्तिबोध मानते थे कि शोषण मुक्त समाज की स्थापना एवं मनुष्य की सत्ता का निर्माण करने का एकमात्र मार्ग राजनीति है, जिसका सहायक प्रगतिशील साहित्य है।
आज प्रगतिशील साहित्य के लेखकों का उत्तरदायित्व और बढ़ गया है। जैसा कि सभी जानते हैं कि जोखिम उठाने का माद्दा सिर्फ प्रगतिशील लेखकों के पास है। साहित्य में आज ऐसी ही तासीर की जरूरत है जो आदमी को अर्थ दे जीने की। आज साहित्य में समाज के प्रति संवेदना की जरूरत है। समाज में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है यातनामयी, कारुणिक दृश्यों से भयाक्रांत होकर आंख ना मूंदे, चीत्कार के बीच कानो में रुई ठूंसने की बजाए आंख और कान खोलकर लेखन करें। कला और साहित्य समाज को बदलने के लिए हैं। निराश ना हो । देखिए,किसी ने क्या ख़ूब लिखा है-
प्रेमचंद कैसे पैदा ना हो
इस कलम को तो कुदाल कीजिए
आइए, अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने प्रतिबद्ध हों। खुलकर लिखते रहें। यह आमजन के हित में ही नहीं बल्कि दुनिया को बेहतर बनाने के लिए भी ज़रूरी है। विश्व के जाने-माने लेखक वारंट व्हिटमेन का ये विचार कि 'हमारा साहित्यिक नारा कला कला के लिए नहीं बल्कि कला समाज को बदलने के लिए है।' इस नारे को बुलंद करना प्रत्येक प्रगतिशील साहित्यकार का कर्त्तव्य है ।
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