कहानी : बच्चों में भगवान होते हैं...!

घटना सचमुच मेरे साथ घट चुकी है। बस इसे कहानी बनाने के लिए मैंने इसमें कुछ अपनी तरफ़ से जोड़ दिया है। 

जयप्रकाश कॉलोनी के एक टी-तिराहे के सिर के एक सिरे पर सटक बैठी इस दुकान की ओर मेरी पीठ थी। मेरे साथ मेरी बातूनी पोती थी, जिसकी आईसक्रीम लेने की रट जारी थी। वह घूमने का बहाना बना जबरन खींचकर किराने की दुकान के तक ले जाती। दुकान पर कुछ ग्राहक दुकान के गले पर लगे पटिये से सटे थे। 


सामने पालीथीन की थैली में सामान लिए सड़क पर तिरछी खड़ी बाइक पर सवार वह दुकान की ओर मुँह किये  सामने वह अध-बैठा जाने को तैयार खड़ा था। सुविधा के लिए उसका नाम विकास रख लेते हैं। 

विकास की ज़बानी हरक़त यह बता रही थी, उसने थोड़ी पी रखी है। मेरी पोती इरा, जो तीनेक साल की है, के बातूनीपन और चंचल निडरता से प्रभावित हो विकास उसे गोदी में उठा कर कह रहा था :
- ‘बेटा, आईसक्रीम क्यों माँग रही हो, सर्दी हो जायेगी।' -
- ‘मुझे वोई खाना है। अच्छी लगती है। सर्दी होगी तो मम्मा दवा दे देगी।’  इरा बोली। 
- ‘बिस्कुट ले लो...?’ 
- ‘नईं, मुझे अच्छे नईं लगते। -
- 'तो और कुछ दिलवा दें। नईं नईं, मैं तो आईसक्रीम ही खाऊँगी।’ 

लेखक - मनोहर बिल्लौरे

वह पूछता रहा और इरा अपनी बाल भाषा में सिर मटकाते, मूँ बनाते जवाब देती रही। इरा ऐसी ही है। भोली, उधमी, वाचाल, चुलबुल। लोगों से निडर। अपनी बात मनवाने के लिए रो-रोकर... सिर पर घर धर मुड़ कर, गुस्सा हो किसी ओट की ओर चली जाने वाली। उसकी बातों से सब प्रभावित हो जाते और मुस्कान और हँसी उनके चेहरे पर नाचने लगती है। कुछ लोगों के घरों में, जिनसे इरा परिचित है - भीतर बेलगाम घुस जाती  और खाने पीने की चीजे़ तलाशने लगती। फ्रिज उसका पहला निशाना होता है। फिर किचेन। ……। 

विकास जाने लगा तो उसे गोदी से उतारते हुए उससे बोला - 
- 'बिस्किट ले लो इरा।' दुकानदार से संबोधित होते हुए विकास बोला -  
- भाई, इरा को बिस्किट का पैकेट दे दो।’ 
इरा मचलते मचलते हुए बोली - 
- 'नईं हम नईं लेंगे। मैं तो आईसक्रीम लूँगी, हाँ…,’ 
इरा का मूँ बना और सिर मटका...। 
- ‘मुझे बिस्कुट नहीं चाहिए...।’

गोदी से उतारकर विकास जाने लगा तो उसने हाथ उठाकर इरा से जाते-जाते  कहा 
- 'जय श्री ...!
इस आशा से कि वह जवाब देगी। शायद उसे बातूनी से प्रति-उत्तर चाहिए था। उसने दुहराया... तब भी इरा  चुप... वह चुप रही तो विकास ने दुबारा, तिबारा कहा। पर वह नहीं बोली। विकास मुझसे मुखा़तिब हुआ - 
- 'अंकल इसे जय श्री... कहना सिखाइये। मैं चुप रहा...। क्योंकि कुछ कहने पर बहस शुरू होने की पूरी आशंका थी और मैं इस समय इस मूड में बिल्कुल नहीं था, सो स्थिर रहा। 

- ‘हाँ... हाँ... ठीक है…!’ कह कर जाने लगा। पर अचानक मैंने पलटकर उससे कहा -

- जानते हैं, वह क्यों नहीं दे रही आपका जवाब...?’ जाते-जाते उसने मुड़कर प्रश्नवाचक नज़रों से मुझे देखा तो मैंने कहा - ‘भाई, वह ख़ुद भगवान है। भगवान भी किसी के इस सवाल के जवाब में अपना नाम 'जय श्री... लगाकर नहीं देते। लोग कहते है - बच्चे भगवान का रूप होते हैं।’ 

वह सोच में पड़ गया। शायद उसका भी मन बहस में उलझने का नहीं था। सो चला गया। मैंने भी इरा से कहा -

- ‘चलो इरा चलते हैं, देर हो रही है। जल्दी-जल्दी खा लो, नहीं तो घर में तुम्हारी मम्मा कुटाई करेगी, कहेगी - ‘सर्दी हो जाएगी…, ……।’ वह बोली 

- आप नईं बताना, हाँ...।’

उसने मेरी ओर देखा और समर्थन चाहा। मैंने कहा -

- ‘अच्छा, ठीक है। चलो अब।’

वह ख़ुश ठुमुक-ठुमक लहराते हुए चलने लगी। मुझे उस पर और ख़ुद पर भी आश्चर्य हुआ कि उसके दिमाग़ में ‘न’ कहने की और मुझे बच्चों में भगवान होने की बात क्यों कर सूझी।  

Post a Comment

Previous Post Next Post